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186... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
वसति प्रमार्जन न करने से लगने वाले दोष- वसति प्रमार्जन मुनि जीवन का दैनिक आचार है। पंचवस्तुक के अनुसार वसति प्रमार्जन न करने से निम्न दोष लगते हैं -
1. लोक निन्दा-यदि मुनि अपने रहने के स्थान की शुद्धि नहीं करता है तो लोगों के मन में साधुओं के प्रति ऐसा विचार आ सकता है कि ये साधु कितने प्रमादी हैं कि अपने रहने के स्थान को भी स्वच्छ नहीं रखते, इस प्रकार लोक में निन्दा होती है।
2. प्राणीघात - वसति धूल आदि से सनी हुई हो तो सूक्ष्म जीव धूल संसर्ग से मृत हो सकते हैं। इस प्रकार प्राणीघात का दोष लगता है।
3. मलिनता-यदि वसति अप्रमार्जित हो, धूल आदि से युक्त हो और वहाँ चलने-फिरने के कारण पाँव धूल आदि से भर गये हों उस स्थिति में पाँवों को साफ किये बिना आसन या उपधि के ऊपर बैठ जाएं तो उपधि के मलिन होने की पूर्ण संभावना रहती है। इस तरह मलिनता का दोष लगता है। ऐसी मलिन उपधि को धोने से छहकाय के जीवों की विराधना और आत्म विराधना का भी दोष लगता है 2 |
अतः वसति प्रमार्जना नियमित रूप से नियत काल में करनी चाहिए ।
तुलना
वसति प्रमार्जन कब, किस विधिपूर्वक, किन उद्देश्यों से किया जाना चाहिए? इस सम्बन्ध में आगम ग्रन्थों एवं टीका ग्रन्थों में कोई विशेष चर्चा नहीं है। सर्वप्रथम आचार्य हरिभद्रसूरि ने इस सम्बन्ध में अपने विचार प्रस्तुत किये हैं, जो आगमोक्त एवं पूर्वाचार्य सम्मत ज्ञात होते हैं। तदनन्तर आचार्य हरिभद्र के मत का अनुकरण करते हुए यतिदिनचर्या में यह वर्णन अधिक स्पष्टता के साथ
किया गया है।
प्रभातकालीन प्रतिलेखना विधि
सामान्यतया जैन साधु-साध्वी प्रातः एवं सायं दो बार प्रतिलेखन क्रिया करते हैं। इस क्रिया का संक्षिप्त स्वरूप उत्तराध्ययनसूत्र में वर्णित है, किन्तु इसका परवर्ती विकसित स्वरूप यतिदिनचर्या, साधुविधिप्रकाश आदि ग्रन्थों में निम्न प्रकार से उपलब्ध होता है - 63
सामान्य प्रतिलेखन - सर्वप्रथम गुरु या गुर्वाज्ञा से एक शिष्य स्थापनाचार्य