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प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना सम्बन्धी विधि-नियम...177 अविधि या प्रमाद प्रतिलेखना से हानि
उत्तराध्ययनसूत्र के निर्देशानुसार जो मुनि प्रतिलेखना करते समय काम कथा करता है, जनपद की कथा करता है, प्रत्याख्यान करवाता है, दूसरों को पढ़ाता है, स्वयं पढ़ता है वह अविधिपूर्वक प्रतिलेखना करते हुए पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय-इन छह कायिक जीवों की विराधना करता है, जीव विराधना से संयम विराधना करता है और संयम विराधना से आत्म विराधना करता है फिर अन्तत: मोक्ष का विघातक बनता है। इसलिए काया और मन की स्थिरतापूर्वक प्रतिलेखना करनी चाहिए। प्रतिलेखना करते वक्त मानसिक, वाचिक एवं कायिक अशुभ व्यापार का तो त्याग करना ही चाहिए, शुभ व्यापार से भी निवृत्त हो जाना चाहिए।40
यहाँ प्रश्न उठ सकता है कि केवल वाणी के प्रयोग मात्र से छह काय जीवों की विराधना कैसे संभव है? ओघनियुक्तिकार ने इसके समाधान में कहा है कि यदि प्रतिलेखक मुनि किसी कुम्हार आदि के स्थान पर प्रतिलेखना कर रहा हो
और बीच में कुछ बोल जाये तो, एक समय में जीव का एक ही उपयोग रहने से प्रतिलेखन का उपयोग चूक सकता है। इससे प्रतिलेखन करते हुए घड़े आदि से धक्का लग जाये और उसमें सचित्त मिट्टी, अग्नि, अनाज कण, कुंथु आदि त्रस जीव विद्यमान हों तो छह काया के जीवों का नाश होता है। जहाँ अग्नि हो वहाँ वायु भी अवश्य होती है, इससे वायुकाय की भी विराधना होती है अथवा घड़े का पानी ढुला हुआ हो और उसमें पोरा आदि त्रस जीव हों तो वे भी मर जाते हैं। इस तरह से वनस्पति आदि जीवों का भी नाश होता है। ___ यदि प्रतिलेखक मुनि अग्नि वाले प्रदेश में हो तो अनुपयोग से वस्त्र के छेड़े में आग लग सकती है तथा उसके स्पर्श से अन्यत्र भी आग लग सकती है। परिणामतः संयम और आत्मा दोनों की विराधना होती है। इस तरह अनुपयोग द्वारा विराधना सम्भावित है।41
शास्त्रों में कहा गया है कि प्रमादी साधु के परिणाम अशुद्ध होने से किसी एक काया के वध में भी छह काया का वध हो सकता है। जैसा कि ओघनियुक्तिकार का कथन है कि प्रमादाचरण या अनुपयोग प्रवृत्ति से जीव का वध न होने पर भी परिणाम के कारण वह नियम से हिंसक कहलाता है, जबकि उपयोगपूर्वक प्रतिलेखना करने वाले साधक का ध्येय रक्षा करना होने से छह