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प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना सम्बन्धी विधि-नियम...169 किस पात्रोपकरण की प्रतिलेखना कितने बोल पूर्वक? यतिदिनचर्या एवं साधुविधिप्रकाश के मन्तव्यानुसार 1. पात्र 2. पात्रबन्ध 3. पात्रस्थान 4. पटल 5. रजस्त्राण और 6. गोच्छक-इन छह पात्रोपकरण की प्रतिलेखना मुखवस्त्रिका की तरह 25 बोल पूर्वक करें। पात्र केसरिका की प्रतिलेखना पूर्वोक्त दस बोल पूर्वक करें।24 ___ वर्तमान परम्परा में तीन पात्र के स्थान पर पाँच, सात, नौ और ग्यारह पात्र की जोड़, तिरपणी (घटाकार लघु पात्र), तिरपणी पकड़ने की डोरी, करेटा (गोलाकार ढक्कन सहित पात्र), पतरी (थाली आकार का पात्र), विभिन्न प्रकार के छोटे-बड़े प्याले, पानी के घड़े आदि अनेक उपकरण बढ़ चुके हैं। इन सभी की प्रतिलेखना 25-25 बोल पूर्वक करनी चाहिए।
किस पात्र की प्रतिलेखना किससे? प्राचीन परम्परा के अनुसार पात्र केसरिका (पूंजणी) की प्रतिलेखना 10 बोल पूर्वक रजोहरण से करें। पात्रों की प्रतिलेखना 25-25 बोल पूर्वक पात्र केसरिका के द्वारा करें। पात्र प्रतिलेखना के समय एक बोल से पात्र के सम्पूर्ण भाग का दृष्टि पडिलेहण करें, बारह बोल द्वारा पात्र के अन्दर के भाग की प्रमार्जना करें एवं बारह बोल से पात्र के बाह्य भाग की प्रमार्जना करें। इस प्रकार 1+12+12 = 25 बोल पूर्वक प्रत्येक पात्र की प्रतिलेखना करें।
पात्र बन्ध, पात्रस्थापन, पटल, रजस्त्राण, गोच्छक- इन पाँच की प्रतिलेखना मुखवस्त्रिका की भाँति चित्त एवं दृष्टि की एकाग्रता पूर्वक दोनों हाथों से करें।25 ___ आहारार्थ जाने से पूर्व पात्र का प्रतिलेखन क्यों? आगम विहित सामाचारी के अनुसार जैन साधु-साध्वी भिक्षाटन करने से पहले पात्र की प्रतिलेखना करते हैं। इसका मुख्य प्रयोजन यह है कि अनदेखे पात्रों को लेकर गृहस्थ के घर में चले जाएं और वहाँ आहारादि के लिए पात्र को सामने करें। यदि उसमें जीव-जन्तु दिख जाएँ या धूल आदि लगी हुई दिख जाये तो जीव विराधना होती है। इससे गृहस्थ पर मुनि जीवन की बुरी छाप पड़ती है, साधुओं की असावधानी, अविवेक और प्रमाद प्रकट होता है तथा अनेक प्रकार के अनिष्ट की संभावनाएं भी हो सकती हैं। पात्र में विषैले जन्तु हों और उसमें आहार आदि ले लिया जाए तो जीव विराधना के साथ-साथ आहारादि के विकृत