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प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना सम्बन्धी विधि-नियम... 159 प्रतिलेखना है अथवा आगम विधि के अनुसार बार-बार निरीक्षण करना प्रतिलेखना है ।
जैन साहित्य में प्रतिलेखना के अर्थ में 'प्रत्युपेक्षणा' शब्द का भी प्रयोग किया गया है। जब मुनि चले तब मार्ग की प्रतिलेखना करें, जब स्थिर रहे तब वसति की प्रतिलेखना करें और दैनिक क्रियाओं में वस्त्र, पात्र एवं उपधि की प्रतिलेखना करें। स्वयं के विचारों की प्रतिलेखना निरन्तर करें। इस तरह व्यावहारिक और आध्यात्मिक दोनों दृष्टियों से प्रतिलेखना का अर्थ घटित होता है ।
इस वर्णन के आधार पर प्रतिलेखन के दो प्रकार हैं- द्रव्य और भाव। मार्ग, वसति, वस्त्र, पात्र और उपधि का सम्यक रूप से निरीक्षण करना द्रव्य प्रतिलेखना है और चेतना के शुभाशुभ विचारों का निरीक्षण करना भाव प्रतिलेखना है ।
प्रतिलेखना के अनंतर की जाने वाली क्रिया प्रमार्जना कहलाती है। प्रमार्जना अर्थात विशेष मार्जना, विशेष शुद्धि करना अथवा सूक्ष्मता से शुद्धि करना प्रमार्जना है। यह शब्द 'प्र' उपसर्ग, 'मृज्' धातु एवं णिच् + ल्युट प्रत्यय के संयोग से निर्मित है। तदनुसार प्र - सम्यक प्रकार से, मृज् - साफ करना यानी अच्छी तरह से साफ करना प्रमार्जना कहा जाता है। जैन विचारणा के अनुसार ऊनी रजोहरण या मोरपंख आदि से बना हुआ कोमल स्पर्शी उपकरण या वस्त्रखण्ड की दसियों के द्वारा पात्रादि उपकरणों की भलीभाँति सफाई करना प्रमार्जना कहलाता है।
यह ज्ञातव्य है कि प्रमार्जना प्रतिलेखनापूर्वक होती है। प्रतिलेखना और प्रमार्जना का परस्पर में घनिष्ठ सम्बन्ध है । प्रायः दोनों का क्रम साथ-साथ चलता है। यद्यपि कुछ वस्तु प्रतिलेखनीय ही होती हैं, जैसे वस्त्र, रजोहरण आदि की केवल प्रतिलेखना की जाती है प्रमार्जना नहीं, जबकि पात्र, वसति ( उपाश्रय), स्थंडिल (परिष्ठापन भूमि), शरीर, मार्ग आदि की प्रतिलेखना और प्रमार्जना दोनों ही होती है। स्पष्ट रूप से रजोहरण आदि वस्त्र प्रतिलेखनीय है एवं पात्रादि शेष वस्तुएँ प्रतिलेखनीय एवं प्रमार्जनीय दोनों रूप हैं।
प्रतिलेखना के एकार्थक शब्द
प्राकृत कोश में प्रतिलेखना के समानार्थक शब्दों के लिए निरीक्षण, अवलोकन, देखभाल आदि का उल्लेख किया गया है। 1
ओघनिर्युक्ति में