SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 220
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय-6 प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना सम्बन्धी विधि-नियम प्रतिलेखना श्रमण एवं श्रावक जीवन का मूल आधार तथा जिनवाणी का सार है। इसे अहिंसामय जीवन साधना का एक अभिन्न अंग माना गया है। जैन मुनि की प्रत्येक चर्या प्रतिलेखना एवं प्रमार्जनापूर्वक ही होती है। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है 'जयं चरे जयं चिट्टे' अर्थात प्रत्येक क्रिया जयणा एवं जागृतिपूर्वक करते हुए उसमें आत्मशोधन करना चाहिए और यही प्रतिलेखना का हार्द है। किसी भी वस्तु को ग्रहण करने अथवा रखने से पूर्व उस स्थान एवं वस्तु का तीन योगों की एकाग्रतापूर्वक निरीक्षण करना प्रतिलेखना कहलाता है। पूर्वाचार्यों ने इस क्रिया पर अत्यधिक बल देते हुए कहा है कि 'पडिलेहियपडिलेहिय, पमज्जिय-पमज्जिय' हे अप्रमत्त साधक! बार-बार प्रतिलेखना करो, प्रमार्जना करो। प्रतिलेखना और प्रमार्जना मुनि जीवन में जितनी आवश्यक मानी गई है, गृहस्थ जीवन में भी इसकी उतनी ही उपादेयता है। प्रत्येक वस्तु को देखकर प्रयोग में लेने से कई अनावश्यक कार्यों एवं बीमारियों से बचा जा सकता है तथा कठिन समस्याओं का उन्मूलन भी किया जा सकता है। प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना का अर्थ विश्लेषण ___ प्रतिलेखना का सामान्य अर्थ है-वस्त्र, पात्र, वसति आदि का सावधानी पूर्वक निरीक्षण करना। यह शब्द 'प्रति' उपसर्ग एवं ‘लिख' धातु से व्युत्पन्न है। प्रति-सम्यक प्रकारेण, लिख-देखना अर्थात किसी भी वस्तु या पदार्थ को सम्यक प्रकार से देखना अथवा ध्यानपूर्वक देखना प्रतिलेखना कहलाता है। जैन परम्परा में यह शब्द सम्यक प्रकार से निरीक्षण करने के अर्थ में प्रयुक्त है, अत: वस्त्र-पात्र आदि का एकाग्र चित्त एवं स्थिर दृष्टि से निरीक्षण करने को प्रतिलेखन कहा गया है। प्रतिलेखना का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-'प्रतिलेखनं प्रतिलेखना आगमानुसारेण प्रति-प्रति निरीक्षणमनुष्ठानं वा' अर्थात ध्यानपूर्वक देखना
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy