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उपधि और उपकरण का स्वरूप एवं प्रयोजन...145 स्पष्ट है कि शारीरिक हलन-चलन जैसी प्रत्येक क्रिया में पिच्छिका का उपयोग करना चाहिए। इसके प्रयोग से जीवदया का पालन होता है। जन समुदाय में 'यह मुनि है' ऐसा विश्वास उत्पन्न होता है।66 स्वयं के हृदय में भी अहिंसादि महाव्रतों के पोषण का संकल्प बल जागृत होता है। दूसरे, सर्प, बिच्छु आदि विषधर जीव-जन्तु इसके समीप नहीं आ सकते तथा इसका निर्माण भी प्राणियों के घातपूर्वक नहीं होता। प्रत्युत कार्तिक मास में मोर के पंख स्वयं झड़ जाते हैं। इस कारण मोर पंख सर्वथा निर्दोष होते हैं।
कमण्डलु- जिस प्रकार जीवदया एवं प्रतिलेखन के लिए पिच्छिका का होना अनिवार्य है, उसी तरह बाह्यशुद्धि के लिए कमण्डलु भी एक आवश्यक उपकरण है। हाथ-पैर के प्रक्षालन एवं मल-मूत्र त्याग के बाद अपान शुद्धि के लिए इसमें प्रासुक जल रखते हैं, अत: इसे शौचोपकरण भी कहते हैं।67
आचार्य कुन्दकुन्द ने इसे शौचोपकरण के रूप में उल्लिखित किया है।68 आचार्य वसुनन्दि ने प्रतिलेखन करने योग्य उपकरणों के प्रसंग में इसके लिए 'कुण्डिका' शब्द का प्रयोग किया है और कहा है कि कुण्डिका ग्रहण करते समय उसका पिच्छि से अवश्य प्रमार्जन करना चाहिए।69 कमण्डल में समर्छिम जीवों की उत्पत्ति की पूर्ण संभावना रहती है। अत: इसे प्रतिपक्ष के अनन्तर प्रक्षालित करते रहना चाहिए। इस नियम का अतिक्रमण करने पर उपवास का प्रायश्चित्त आता है।70 कौनसी उपधि कितनी संख्या में ?
सामान्यतया सभी प्रकार की उपधि संख्या में एक-एक रखनी चाहिए, किन्तु काल विशेष में दुगुनी उपधि रखने का भी उल्लेख मिलता है। आचार्य मलयगिरि (ओघनियुक्ति, 726) ने कहा है कि वर्षाऋतु में औपग्रहिक उपधि दुगुनी रखनी चाहिए। इसके साथ ही आहारपात्र को ढंकने में उपयोगी पडले भी दुगुने रखने चाहिए। निर्दिष्ट उपधि को दुगुना रखने से आत्मा और संयम दोनों का संरक्षण होता है। जैसे वर्षा काल में ओढ़ने के लिए एक ही वस्त्र हो और बाहर जाने वाले साधु का वस्त्र भीग गया हो, तब दूसरा न बदलने से सर्दी प्रकोप के कारण उदरशूल आदि रोगोत्पत्ति हो सकती हैं और मृत्यु भी हो सकती है। यदि ओढ़ा हुआ वस्त्र अत्यन्त मलीन हो तो वर्षा में भीगने पर अपकाय जीवों की विराधना भी होती है। इसीलिए वर्षाकाल में उपयोगी उपधि दुगुनी रखनी चाहिए।