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146...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन उपधि की आवश्यकता क्यों?
उपधि या उपकरण धर्म साधना में उपयोगी होने के कारण उन्हें परिग्रह रूप नहीं माना है। जैन आचरणा में वस्तु या पदार्थ को परिग्रह नहीं कहा है, अपितु पदार्थ के प्रति होने वाली आसक्ति को परिग्रह माना है। आचार्य उमास्वातिजी कहते हैं 'मूर्छा परिग्रहो'- मूर्छा या आसक्ति परिग्रह है।1 यदि इन उपकरणों का प्रयोग आत्मविशुद्धि के लिए किया जाता है तो वस्त्र-पात्र आदि उपकरण धारण करने वाले मनि को परिग्रही नहीं कहा जाएगा, क्योंकि उसके धर्मोपकरण परिग्रह नहीं है।/2
आचार्य हरिभद्रसूरि कहते हैं कि तीर्थंकरों और गणधरों ने आसक्ति रहित साधुओं के लिए औधिक और औपग्रहिक- इन दोनों प्रकार की उपधि को चारित्र की सम्यक् साधना हेतु आवश्यक माना है। यदि इनका उपयोग यथोक्त परिमाण एवं विधि-नियम के साथ किया जाये तो ये असंयम से निवृत्त करते हैं तथा यथोक्त परिमाण में एवं यथोक्त संख्या में इनका उपयोग न किया जाये तो उपधि रखने में आज्ञाभंगादि दोष लगते हैं।73 इससे सिद्ध होता है कि वस्तु परिग्रह नहीं है बल्कि उससे जुड़ी हुई आसक्ति परिग्रह है। दूसरी ओर धर्म साधना में सहयोगी उपकरणों का निर्ममत्व भाव से उपयोग किया जाये तो ये कर्म निर्जरा के पारम्परिक हेतु बनते हैं। इसी दृष्टि से उपधि परिग्रह नहीं हैं।
स्वरूपतया जीवरक्षा और संयम साधना की दृष्टि से उपकरणों की आवश्यकता स्वीकारी गई है। इन उपकरणों के माध्यम से चारित्र धर्म की विशेष रूप से उपासना की जा सकती है। वर्तमान काल में प्रयुक्त उपकरण
ओघनियुक्ति आदि ग्रन्थों में जिनकल्पी के लिए 12, सामान्य मुनि के लिए 14 एवं साध्वी के लिए 25 उपकरणों का निर्देश है। वर्तमान में इनसे भिन्न कुछ नये उपकरणों का भी प्रयोग होने लगा है।
श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में सामान्यतया निम्नलिखित उपकरण प्रचलन में हैं- 1. पात्र 2. छोटे-बड़े अनेक प्रकार के पात्र 3. पतरी 4. प्याला 4. प्लास्टिक प्याला 6. टोपसी 7. तिरपणी 8. करेटा 9. पात्रादि के ढक्कन 10. जलपात्र-मिट्टी, प्लास्टिक, तुम्बा, तांबा आदि के घड़े 11. झोली 12. पडला 13 गुच्छा (पात्र बंधन), 14. नांगला (पात्र बंधन डोरी)