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144...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
मयूरपिच्छी में पाँच गुण हैं- 1. धूलि को ग्रहण नहीं करना, 2. पसीने को ग्रहण नहीं करना, 3. मृदुता-चक्षु में फिराने पर भी पीड़ा नहीं करना, 4. सुकुमारता अर्थात सुन्दर और कोमल होती है तथा 5. लघुता- यह उठाने में हल्की होती है। वस्तुत: यह इतनी कोमल होती है कि इसके स्पर्श से सूक्ष्म जीवों का थोड़ा भी घात नहीं होता है। नमनशील होने से इसके तन्तु शीघ्र झुक जाते हैं और इससे प्रतिलेखना काल में जीवों को बाधा नहीं होती है। ___ यहाँ प्रश्न हो सकता है कि चक्षु से भी प्रमार्जन करना संभव है तब पिच्छिका धारण करना क्यों आवश्यक है? इसके समाधान में बताते हैं कि बहुत से एकेन्द्रिय एवं बेइन्द्रिय आदि जीव इतने सूक्ष्म होते हैं कि वे चर्मचक्षु से ग्रहण नहीं किये जा सकते हैं। अत: उन जीवों की रक्षा के लिए एवं संयम पालन के लिए मुनियों को मयूरपिच्छ रखना अनिवार्य है।61
मूलाचार में मयूरपिच्छ की उपादेयता को बतलाते हुए कहा गया है कि पिच्छिका के अभाव में साधु-साधु नहीं होता। जो साधु रात्रि में शयन करने के बाद मल-मूत्रादि के लिए पुनः उठते हैं, वे अंधेरे में प्रतिलेखन किये बिना मलमूत्रादि का विसर्जन करें, संस्तारक पर लेट जायें या करवट आदि बदलें तो निश्चित ही जीव वध होता है, अत: साधु को पिच्छिका अवश्य रखनी चाहिए।62
नीतिसार में कहा गया है कि छाया में, आतप में, छाया से आतप में आने से पूर्व एवं आतप से छाया में आने से पूर्व तथा एक स्थान से दूसरे स्थान में गमनागमन करने से पूर्व मृदुतापूर्वक पिच्छी से शरीर का आलेखन कर लेना चाहिए।63 मूलाचार में प्रतिलेखना योग्य स्थानों का निर्देश करते हुए कहा गया है कि कायोत्सर्ग करते समय, खड़े होते समय, गमन करते समय, कमण्डलु ग्रहण करते समय, पुस्तकादि रखते समय, पाट आदि लेते समय, हाथ-पैर सिकोड़ते या फैलाते समय तथा आहार के अनन्तर उच्छिष्ट का परिमार्जन करते समय निश्चित ही प्रतिलेखन करना चाहिए, क्योंकि यह श्रमणत्व का चिह्न है।64 भगवती आराधना के अनुसार यदि कोई श्रमण पिच्छिका ग्रहण किये बिना सात कदम भी गमन करता है तो कायोत्सर्ग द्वारा उस दोष की शद्धि होती है, एक कोश गमन करने पर एक उपवास तथा इससे अधिक दोष लगने पर दुगुने उपवास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।65