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उपधि और उपकरण का स्वरूप एवं प्रयोजन...131 संपूर्ण रजोहरण बत्तीस अंगुल परिमाण का होना चाहिए। डंडी या दशिया परिमाण में न्यूनाधिक भी हो सकती है किन्तु दोनों को संयुक्त कर रजोहरण का परिमाण बत्तीस अंगुल होना चाहिए। इस माप में रजोहरण के भीतर के दो वस्त्र शामिल हैं।26
प्रयोजन- कोई भी वस्तु लेना हो या रखना हो, भूमि पर कायोत्सर्ग करना हो, बैठना हो, शरीर से करवट बदलनी हो, शरीर के अंगों को संकुचित करना हो आदि प्रवृत्तियाँ करने से पूर्व भूमि आदि का प्रमार्जन करने के लिए रजोहरण का उपयोग होता है। यह साधु का चिह्न होने से भी इसे रखने का विधान है।27
8. मुखवस्त्रिका- मुखवस्त्रिका चार कोण वाली तथा एक बेंत और चार अंगुल परिमाण चौरस होनी चाहिए अथवा मुख ढंक जाए उतनी चौरस होनी चाहिए। गणना की दृष्टि से प्रत्येक मुनि एक-एक मुखवस्त्रिका रख सकता है।28
प्रयोजन- मुखवस्त्रिका का उपयोग बोलते समय संपातिम जीवों की रक्षा के लिए (उड़ते हुए जीव मुख में प्रवेश कर मृत्यु को प्राप्त न हो जाएँ) तथा सचित्त रज और रेणु की प्रमार्जना के लिए किया जाता है। इसका उपयोग वसति आदि का प्रमार्जन करते समय मुख में धूल आदि प्रविष्ट न हो जाये तथा स्थंडिल भूमि पर वहाँ की अशुद्ध हवा से नाक में मस्सा न हो जाये, इन कारणों से नाक और मुंह को बांधने में भी किया जाता है।29
9. मात्रक- मगध देश में प्रसिद्ध प्रस्थ परिमाण वस्तु से अधिक वस्तु जिसमें समाविष्ट हो सके, मात्रक उतना बड़ा होना चाहिए।
परिमाण दो असती = एक प्रसृति दो प्रसृति
एक सेतिका चार सेतिका = एक कुलब चार कुलब = एक प्रस्थ (मगध देश का माप)
अथवा दो कोश से विहार करके आये हुए मुनि की क्षुधा शान्त करने के लिए जितना आहार आवश्यक हो वह जिस पात्र में समा सके उतना परिमाण वाला मात्रक होना चाहिए।30
प्रयोजन- मात्रक के द्वारा आचार्य, ग्लान, प्राघूर्णक आदि के अनुकूल अलग-अलग खाद्य पदार्थ ला सकते हैं। यह इतना बड़ा होता है कि इसमें घृत
प्रस्थ