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130...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
प्रयोजन- पडले का उपयोग पात्र को ढंकने के लिए, हवा के कारण गिरने वाले सचित्त फल, फूल, पत्र एवं सचित्त रज से आहार की रक्षा के लिए, उड़ते हुए पक्षियों के पुरीष (मल), मूत्र आदि से आहार को बचाने के लिए, संपातिम जीवों की रक्षा के लिए तथा वेदोदय होने पर विकृत लिंग को ढंकने के लिए किया जाता है।18
5. रजस्त्राण- रजस्त्राण का परिमाण पात्र के माप के अनुसार होना चाहिए अर्थात पात्र को प्रदक्षिणाकार से वेष्टित करने के बाद चार अंगुल प्रमाण लटकता रहे, उतना होना चाहिए।19
प्रयोजन- रजस्त्राण का उपयोग ग्रीष्म काल में चूहे आदि से कुरेदी हुई मिट्टी से बचाव करने, वर्षाऋतु में पानी की बूंदे, तुषार कण, सचित्त रज आदि पात्र में न गिरें इस कारण किया जाता है।20 ____6. वस्त्र- जिनकल्पी मुनि वस्त्र धारण नहीं करते हैं, उसके बावजूद भी ओघनिर्यक्ति आदि ग्रन्थों में वस्त्र का भिन्न-भिन्न माप बताया गया है। ओघनियुक्ति में जिनकल्पी मुनि के वस्त्र के लिए लम्बाई में स्वशरीर प्रमाण और चौड़ाई में ढाई हाथ का उल्लेख है।21 बृहत्कल्पसूत्र में लम्बाई में साड़ा तीन हाथ
और चौड़ाई में ढाई हाथ का निर्देश है22 तथा पंचवस्तुक में ढाई हाथ लम्बे वस्त्र का वर्णन है।23 स्थविरकल्पी मुनि का वस्त्र स्वशरीर परिमाण या उससे कुछ बड़ा होना चाहिए। स्थविर मुनि ऐसे तीन वस्त्र रख सकता है- दो सूती और एक ऊनी।24
प्रयोजन- वस्त्र का उपयोग तृण ग्रहण के निवारण के लिए, अग्नि सेवन के वर्जन के लिए, धर्म-शुक्ल ध्यान के समय शीत आदि से बचने के लिए, ग्लान के संरक्षण के लिए और मृत को आच्छादित करने के लिए किया जाता हैं। ___सार रूप में निर्बल संघयण वाले साधुओं को ठण्डी में कपड़े ओढ़ लेने से घास नहीं लेनी पड़ती है और अग्नि ताप का सेवन नहीं करना पड़ता है। शीत का अनुभव न होने से धर्मध्यान और शुक्लध्यान की साधना निर्विघ्नतया होती है। इन्हीं कारणों से वस्त्र रखने का विधान है।25 ___7. रजोहरण- यह बत्तीस अंगुल परिमाण लम्बा होना चाहिए। उसमें चौबीस अंगुल परिमाण डंडी और आठ अंगुल परिमाण दशिया इस प्रकार