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132...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन आदि दुर्लभ वस्तुएँ भी ला सकते हैं। अन्य साधुओं को पर्याप्त आहार न मिलता हो तो उनके लिए अधिक आहार ला सकते हैं। किसी देश या किसी काल में जीवसंसक्त (सचित्त) आहार-पानी मिलता हो तो उनका मात्रक में शोधन किया जा सकता है। इन कारणों से चातुर्मास में मात्रक अवश्य रखना चाहिए।31 ___10. चोलपट्ट- चोल अर्थात पुरुष चिह्न, पट्ट अर्थात प्रावरण वस्त्र। पुरुष चिह्न को ढंकने वाला वस्त्र चोलपट्ट कहलाता है। सामान्यतया दो तह या चार तह करने पर यह लम्बाई-चौड़ाई में एक हाथ परिमाण का होना चाहिए। उम्र की अपेक्षा चोलपट्ट दो प्रकार का कहा गया है- 1. स्थविर और 2. युवा। वयोवृद्ध साधु का चोलपट्ट चार हाथ परिमाण का और युवा साधु का चोलपट्ट दो हाथ परिमाण का होना चाहिए। आकार की दृष्टि से पतला और मोटा- दो प्रकार के चोलपट्ट माने गये हैं। उसमें वृद्ध को पतला और युवा को मोटा चोलपट्ट पहनना चाहिए।32
प्रयोजन- चोलपट्ट का उपयोग विकृत लिंग को ढंकने के लिए किया जाता है। स्वाभाविक रूप से किसी साधु का लिंग असहज हो तो उसे देखकर लोग उपहास, निन्दा आदि कर सकते हैं। यदि मुनि चपल हो तो स्त्री को देखकर या चंचल स्वभाविनी स्त्री हो तो मुनि को देखकर वासना की भावना जागृत हो सकती है। अत: शील की सुरक्षा के लिए मुनि को चोलपट्ट पहनने की अनुमति है।33
11. संस्तारक उत्तरपट्ट- संस्तारक और उत्तरपट्ट की लम्बाई ढाई हाथ और चौड़ाई एक हाथ चार अंगुल होनी चाहिए।
प्रयोजन- इनका उपयोग षनिकाय जीव की सुरक्षा के लिए एवं आत्म भावों को सुस्थिर रखने के लिए होता है। शरीर पर लगने वाले रजकण से बचने के लिए भी संथारा बिछाते हैं।
संथारा के ऊपर उत्तरपट्ट क्यों - जैन मुनि के चार उपकरण सूती-ऊनी एवं ऊनी-सूती इस क्रम से उपयोग में लिये जाते हैं। जैसे ऊनी संस्तारक और उसके ऊपर सूती उत्तरपट्टा तथा रजोहरण के ऊपर ऊनी ओघारिया और उसके नीचे सूती ओघारिया।
ऊनी संस्तारक के ऊपर सूती उत्तरपट्ट (वस्त्र) बिछाने का प्रयोजन यह है कि यदि वस्त्र में जूं आदि उत्पन्न हो जाए या भूमि पर जीव-जन्तु आदि हों तो