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84... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
दिया जाने वाला आहार ग्रहण करना । जैनागमों में साधु-स्
- साध्वियों के लिए उपर्युक्त कार्य निषिद्ध कहे गये हैं।
उपसंहार
चारित्र धर्म की पवित्रता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए शबल दोष का सर्वथा परिहार करना चाहिए। मुनि जीवन के ये नियम आगम विहित हैं। विकास क्रम की दृष्टि से इन दोषों का स्वरूप सर्वप्रथम समवायांगसूत्र 19 में निर्दिष्ट हैं। तदनन्तर यह चर्चा दशाश्रुतस्कन्ध 20 एवं उत्तराध्ययन सूत्र 21 में की गई है। यद्यपि बिखरे हुए अंशों में यह वर्णन बहुत-सी जगहों पर प्राप्त होता है किन्तु इसका व्यवस्थित रूप उपरोक्त ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। इसके सिवाय श्रमण प्रतिक्रमणसूत्र 22 में भी इसका उल्लेख है।
यदि तुलनात्मक दृष्टि से मनन किया जाए तो समवायांगसूत्र में प्रतिपादित ग्यारहवाँ और पांचवाँ शबल दोष दशाश्रुतस्कन्ध में क्रमशः पांचवाँ और ग्यारहवाँ दोष है। इसके अतिरिक्त नाम, स्वरूप आदि में लगभग समानता है।
यदि शबल दोषों के वैयक्तिक और सामाजिक दुष्प्रभाव के विषय में चिन्तन किया जाए तो सर्वप्रथम इससे वैयक्तिक चारित्र का ह्रास एवं सामाजिक स्तर पर साधु धर्म की उपेक्षा होती है तथा प्रत्याख्यान भंग होने से मन में ढीलापन आता है। गण आदि परिवर्तन करने से या सामान्य व्यवहार में भी जो व्यक्ति बार-बार नौकरी आदि बदलता रहता है उसकी प्रतिष्ठा कम होती है। संयम विरुद्ध आचरण से जीवन में शिथिलता, लापरवाही, कामचोरी आदि में वृद्धि होती है। दोषयुक्त आहार आदि ग्रहण करने से शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक पतन होता है।
इन दोषों से रहित मुनि का प्रभाव प्रबन्धन के क्षेत्र में देखा जाए तो वह साधु ब्रह्मचर्य का पालन करने से वीर्य का सम्यक नियोजन करते हुए समाज पर अपनी वाणी का विशेष प्रभाव डाल सकता है। नियमों के प्रति दृढ़ता रखते हुए अनुशासनबद्ध कार्य का संचालन तथा अपनेगण में स्थिर रहने से अथवा स्वयं के कार्य एवं कार्यालय आदि के प्रति विश्वासभाजन बनने से उसकी एवं प्रतिष्ठान दोनों की गरिमा बढ़ती है। लोभ आदि से रहित होने के कारण स्वयं के आचार एवं आत्मा दोनों का पतन नहीं होता है। इस प्रकार शबल दोषों का सेवन नहीं करने वाला मुनि उत्कर्ष के साथ सामाजिक उत्कर्ष में सहायक होता