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________________ जैन मुनि के सामान्य नियम...85 है तथा भाव प्रबन्धन, कषाय प्रबन्धन, समाज प्रबन्धन आदि में भी सहायक होता है। बीस असमाधि स्थान जिस सत्कार्य के करने से चित्त में शान्ति हो, दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप मोक्षमार्ग में अवस्थिति हो वह समाधि है तथा जिस कार्य से चित्त में अशान्ति हो एवं ज्ञानादि मोक्षमार्ग से आत्मा भ्रष्ट हो वह असमाधि है। जैन ग्रन्थों में असमाधि उत्पन्न करने के बीस स्थान बताये गये हैं जो निम्न हैं-23 1. द्रुत-द्रुत चारित्र-जल्दी-जल्दी चलना। हानि-शीघ्र चलने वाला व्यक्ति कहीं गिर सकता है, शारीरिक पीड़ा पैदा कर सकता है और दूसरे प्राणियों की हिंसा कर उन्हें असमाधि पहुँचा सकता है। इससे परलोक में भी असमाधि प्राप्त होती है। 2. अप्रमृज्य चारित्व-रात्रिकाल में बिना पूँजे-प्रमार्जन करते हए चलना। हानि-अप्रमार्जना पूर्वक चलने से जीवों की हिंसा होती है जिससे संयम धन की भी हानि होती है। 3. दुष्प्रमृज्य चारित्व-उपयोग शून्य होकर प्रमार्जन करना। हानि-अविवेक या असावधानी पूर्वक प्रवृत्ति से अनेकों समस्याएँ उत्पन्न होती है। 4. अतिरिक्त शय्यासनिकत्व-आवश्यकता से अधिक शय्या-संस्तारक आदि और आसन आदि रखना। ____ हानि-अनावश्यक उपधि रखते हुए उनका प्रतिदिन उपयोग न करने पर और प्रतिलेखन-प्रमार्जन न करने पर उनमें जीवोत्पत्ति होने की संभावना रहती है तथा उन जीवों के संघर्षण-संमर्दन से संयम की क्षति होती है। 5. रानिक पराभव-गुरुजनों का अपमान करना। हानि-गुरुजनों का सम्मान न करने से लोकनिन्दा का पात्र बनता है और गुरु कृपा से वंचित हो सद्गति का निरोध कर लेता है। 6. स्थविरोपघात-स्थविरों (दीक्षा, आयु एवं ज्ञान से श्रेष्ठ मुनियों) की अवहेलना करना। हानि-स्थविर मुनियों की आशातना करने वाला ज्ञानावरणीयकर्म एवं
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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