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जैन मुनि के सामान्य नियम... 83
2. मैथुन - मैथुन सेवन करना ।
3. रात्रिभोजन - रात्रिकाल में भोजन का सेवन करना ।
4. आधाकर्म - साधु के निमित्त से बनाया गया भोजन लेना । 5. सागारिकपिण्ड - शय्यातर अर्थात स्थानदाता का आहार लेना । 6. औद्देशिक - साधु के या याचकों के निमित्त बनाया गया, खरीदा हुआ, आहृत-स्थान पर लाकर दिया हुआ, प्रामित्य- उधार लाया हुआ, आच्छिन्नछीनकर लाया हुआ आहार लेना ।
7. प्रत्याख्यान भंग - प्रत्याख्यान का बार- बार भंग करना ।
8. गणपरिवर्तन - छह मास में एक गण को छोड़कर दूसरे गण में प्रवेश
करना।
9. उदकलेप-एक मास में तीन बार नाभि या जंघा प्रमाण जल में प्रवेश कर नदी आदि पार करना ।
10. मातृस्थान- एक मास में तीन बार माया स्थान का सेवन करते हुए कृत अपराधों को छुपा लेना।
11. राजपिण्ड - राजकुल का आहार ग्रहण करना ।
12. आकुट्या हिंसा - जानबूझकर हिंसा करना ।
13. आकुट्या मृषा- जानबूझकर झूठ बोलना। 14. आकुट्या अदत्तादान - जानबूझकर चोरी करना।
15. सचित्त पृथ्वी स्पर्श - जानबूझकर सचित्त पृथ्वी पर बैठना, सोना, खड़े होना।
16. इसी प्रकार सचित्त जल से स्निग्ध और सचित्त रज वाली पृथ्वी आदि पर बैठना, सोना, कायोत्सर्ग आदि करना।
17. प्राणी, बीज, हरित, कीड़ी नगरा, लीलन - फूलन, कीचड़ और मकड़ी के जाल युक्त स्थानों पर बैठना, सोना आदि ।
18. जानबूझकर कन्द, मूल, छाल, प्रवाल, पुष्प, फूल आदि का भोजन
करना।
19. वर्ष के अन्दर दस बार उदक लेप अर्थात नदी पार करना ।
20. वर्ष में दस बार माया स्थानों का सेवन करना ।
21. जानबूझकर सचित्त जलयुक्त हाथ से या सचित्त कड़छी आदि से