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जैन मुनि के सामान्य नियम... 79
लाभ- इससे प्रवृत्ति के दौरान कोई पापानुष्ठान हुआ हो तो उसका निषेध हो जाता है और गमनागमन काल में लक्ष्य के प्रति जागृति बनी रहती है।
6. आपृच्छना- किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने से पूर्व गुरु या गुरु सम्मत ज्येष्ठ साधु से यह पूछना कि 'क्या मैं यह कार्य करूँ ?' आपृच्छना सामाचारी है। लाभ-इससे स्वच्छन्दवृत्ति पर अंकुश लगता है।
7. प्रतिपृच्छना - गुरु द्वारा पूर्व निषिद्ध कार्य को पुन: करना आवश्यक हो दुबारा गुरु से पूछना - भगवन! आपने पहले इस कार्य के लिए मना किया था लेकिन यह जरूरी है, अतः आप आज्ञा दें तो यह कार्य कर लूँ? इस प्रकार फिर से पूछना प्रतिपृच्छना सामाचारी है।
लाभ-आपृच्छा और प्रतिपृच्छा से श्रमशील और दूसरों के लिए उपयोगी बनने की भावना पनपती है।
8. छन्दना-स्वयं के लिए पहले से लाये गए आहार हेतु अन्य साधुओं को आमन्त्रित करना कि ‘यह आहार लाया हूँ इसमें से आपके उपयोगी कुछ हो तो ग्रहण कीजिए, मैं धन्य हो जाऊँगा' यह छन्दना सामाचारी है।
लाभ-छन्दना से अतिथि सत्कार की प्रवृत्ति बढ़ती है।
9. निमंत्रणा - आहार लाने के लिए जाते समय अन्य साधुओं से भी पूछना कि ‘क्या आप के लिए भी आहार लेता आऊँ ?' यह निमंत्रणा सामाचारी है। लाभ-निमंत्रणा से गुरुजनों के प्रति भक्ति एवं गुरुता बढ़ती है।
10. उपसंपदा-ज्ञान-दर्शन - चारित्र आदि की विशिष्ट प्राप्ति के लिए अपवादतः स्वगच्छ को छोड़कर किसी ज्ञानी गुरु के समीप अमुक अवधि तक रहना उपसंपदा सामाचारी है। इस सामाचारी का आवश्यक स्पष्टीकरण इस प्रकार है
उपसम्पदा (निशीथभाष्य 5452) जघन्य से छह मास, मध्यम से बारह मास और उत्कृष्ट से यावज्जीवन स्वीकार की जा सकती है।
उपसम्पदा के तीन प्रयोजन हैं - ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र। ज्ञान एवं दर्शन उपसम्पदा तीन कारणों से स्वीकार की जाती है - सूत्र, अर्थ और तदुभय । ये तीन भी तीन-तीन प्रकार से होते हैं।
1. वर्त्तना - पूर्वगृहीत सूत्र आदि का पुनः पुनः अभ्यास करने के लिए। 2. संधान - पूर्वगृहीत सूत्रादि जो विस्मृत हो चुके हैं उनका पुनः संस्थापन