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80... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
करने के लिए।
3. ग्रहण - अपूर्व श्रुत का ग्रहण करने के लिए।
दर्शन उपसम्पदा दर्शन प्रभावक एवं दर्शन विशोधक ग्रन्थों के अध्ययन के लिए ग्रहण की जाती है।
चारित्र उपसम्पदा वैयावृत्य एवं तपस्या के उद्देश्य से स्वीकार की जाती है। आचार्य भी निम्न तीन कारणों से उपसम्पदा ग्रहण करते हैंज्ञानार्थ-महाकल्पश्रुत आदि के अध्ययन के लिए।
दर्शनार्थ - विद्या, मन्त्र और निमित्त सम्बन्धी शास्त्रों को जानने के लिए। चारित्रार्थ-चारित्र विशोधि के स्थानों की अभिवृद्धि एवं सामाचारी की विशिष्ट परिपालना करने के लिए अथवा निम्न तीन विकल्पों के समुपस्थित होने पर उपसंपदा ग्रहण करते हैं
1. कोई आचार्य अवसन्न हो गया है तो उसके शिष्य समुदाय में कौन साधु वय और श्रुत से सम्पन्न आचार्यपद के योग्य है - इसकी खोज के लिए । 2. कोई आचार्य या उपाध्याय गृहस्थ बन गया हो तो उस गण की व्यवस्था के लिए।
3. कोई आचार्य दिवंगत हो गया हो तो उस गण की सार-संभाल के लिए। यह ध्यातव्य है कि सामान्य भिक्षु स्वगण को छोड़कर अन्य गण की उपसंपदा स्वीकार करना चाहे तो, वह आचार्य आदि पदस्थ साधुओं को पूछकर जाए। यदि वे अनुमति न दें तो नहीं जा सकता है।
इसी तरह आचार्य आदि पदवीधर साधु उपसंपदा स्वीकार करना चाहें तो वे अपने पदों का त्याग कर एवं गुर्वाज्ञा लेकर जाएँ।
निशीथभाष्य (3627) के अनुसार जो श्रमण निम्न दस कारणों से निर्गमन करता है, वह उपसंपदा की दृष्टि से अयोग्य है
1. जो भिक्षु गृहस्थ या मुनि से कलह होने के कारण आया हो 2. विकृति सेवन के प्रयोजन से आया हो 3. योगोद्वहन के भय से आया हो 4. 'अमुक मुनि मेरा प्रत्यनीक है' यह सोचकर आया हो 5. आचार्य द्वारा कठोर अनुशासन से त्रस्त होकर आया हो 6. उत्कृष्ट द्रव्यों की लोलुपता के कारण आया हो 7. यहाँ आचार्य उग्रदण्ड देते हैं - इस विचार से आया हो 8. भिक्षाचर्या के श्रम से बचने के लिए आया हो 9. सहवर्ती मुनि तीव्र वैर परिणामी हैं -इस कारण से आया