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72...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
(iv) अलाघवता (भार)-शय्यातर के यहाँ आहार आदि के लिए बारबार आना जाना होने से शरीर पुष्ट (भारी) हो जाता है, उपधि आदि का भार भी बढ़ जाता है। फलतः उस गृहस्थ पर उन साधुओं का भार भी बढ़ जाता है और वह सोचता है कि अरे! इन्हें आवास स्थान क्या दे दिया, अब इनके भोजन आदि की भी व्यवस्था करो।
(v) दुर्लभशय्या-जो आश्रय देता है उसे आहार देना पड़ेगा, ऐसा भय उत्पन्न होने से साधुओं को आश्रय-स्थल नहीं मिलता है। __(vi) व्यवच्छेद-अधिक मकान होंगे तो साधुओं को देने पड़ेंगे, इस भय से मकान नहीं रखना आवास व्यवच्छेद रूप दोष है। आश्रय देंगे तो भोजन भी देना पड़ेगा, इस भय से आश्रय नहीं देना भी आवास व्यवच्छेद दोष है।
समाहारत: साधु और शय्यातर के उपकार्य-उपकारक भाव के कारण पारस्परिक स्नेह में वृद्धि न हो, गृहस्थों के मन में साधुओं के प्रति पूज्य भाव बना रहे तथा साधुओं को नि:स्पृहता का बोध हो, एतदर्थ शय्यातर पिण्ड का निषेध किया गया है। 4. राजपिण्ड कल्प
राजा के घर का बना हुआ आहार अथवा जो राजा द्वारा अभिषिक्त है, जैसे सेनापति, अमात्य, पुरोहित आदि के घर पर बना हुआ आहार राजपिंड कहलाता है। राजपिंड आठ प्रकार के होते हैं- 1.अशन 2. पान 3. खादिम 4. स्वादिम 5. वस्त्र 6. पात्र 7. कंबल और 8. रजोहरण।
प्रथम एवं अन्तिम तीर्थंकर के साधुओं के लिए राजपिण्ड का निषेध है क्योंकि इससे व्याघात आदि दोष लगते हैं, किन्तु मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकर के श्रमणों के लिए परिस्थिति विशेष में लेने का विधान है।
पंचाशक के अनुसार राजपिण्ड लेने से निम्न दोष लगते हैं
(i) व्याघात-राजकुल में भोगिक, माण्डलिक आदि सपरिवार आते-जाते रहते हैं। इससे साधुओं को आने-जाने में परेशानी या विलम्ब होने से उनके
अन्य कार्य रुक सकते हैं। __(ii) लोभ एवं (iii) एषणाघात-राजकुल में अधिक एवं स्वादिष्ट आहार मिलता है ऐसी भावना से उन वस्तुओं की सम्प्राप्ति होने पर लोभ बढ़ सकता है और लोभ से एषणा का घात होता है।