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जैन मुनि के सामान्य नियम...73 (iv) आसक्ति-सुन्दर हाथी, घोड़ा, स्त्री, पुरुष आदि को देखने से उनके प्रति आसक्ति हो सकती है।
(v) उपघात-बार-बार राजभवन में आने-जाने से साधु के ऊपर जासूस, चोर आदि की शंका करके राजा द्वारा ताड़ना, प्रताड़ना रूप उपघात किया जा सकता है। ___(vi) गर्दा- साधु स्वादिष्ट आहार के लालची हैं अत: राजपिण्ड लेते हैं, इस तरह की लोक निन्दा होती है।
किसी खास अवसर पर साधु और भिक्षापात्रों को देखकर अमंगल की संभावना से द्वेषभाव उत्पन्न हो सकता है। अतएव जैन मुनि के लिए राजपिण्ड लेने का सर्वथा निषेध है। 5. कृतिकर्म कल्प .
कृतिकर्म का सामान्य अर्थ है-वन्दन करना। कृतिकर्म दो प्रकार के होते हैं- 1. अभ्युत्थान और 2. वन्दन।
अभ्युत्थान का अर्थ है-आचार्य आदि वरिष्ठ श्रमणों के आने पर खड़े हो जाना। वन्दन का अर्थ है-बारह आवर्त पूर्वक वन्दन करना अर्थात ज्येष्ठ श्रमणों के आने पर सम्मान से खड़े होना तथा यथाक्रम से ज्येष्ठ मुनियों को वन्दन करना कृतिकर्म कल्प है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि अधिक संयम पर्यायवाली साध्वी के लिए अपने से छोटे श्रमणों को भी वन्दन करने का विधान है, फिर वह आज का नवदीक्षित ही क्यों न हो? इस कल्प का अनुपालन सभी तीर्थंकर के साधु समान रूप से करते हैं। __कृतिकर्म का पालन न करने से निम्नोक्त दोष लगते हैं-1. अहंकार की वृद्धि होती है। 2. अहंकार से नीच गोत्र कर्म का बन्धन होता है। 3. जिनशासन में विनय का उपदेश नहीं दिया गया है-इस प्रकार जिनशासन की निन्दा होती है। 4. विनय भक्ति न होने से सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता और संसार की वृद्धि होती है। 6. व्रत कल्प
महाव्रतों का पालन करना व्रत कल्प है। प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के शासन में पाँच महाव्रत होते हैं, इसे पंचयाम धर्म भी कहते हैं। मध्य के बाईस