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जैन मुनि के सामान्य नियम... 71
जो आहार साधु-साध्वी, कुल या गण के लिए बनाया गया हो वह प्रथम एवं अन्तिम तीर्थंकर के साधुओं को ग्रहण करना नहीं कल्पता है। शेष बाईस तीर्थंकर के साधुओं में जिस मुनि के उद्देश्य से जो आहार बनाया गया हो, वह आहार उस मुनि को लेना तो नहीं कल्पता है किन्तु शेष मुनियों के लिए वह ग्राह्य होता है।
3. शय्यातर पिण्ड कल्प
शय्यातर का शब्दानुसारी अर्थ है - शय्या यानी रुकने का स्थान आदि देकर संसार सागर से पार उतरने वाला गृहस्थ अथवा साधुओं के उपाश्रय (निवास स्थान) का मालिक।
शय्यातर के घर की आहारादि सामग्री शय्यातर पिण्ड कही जाती है। शय्यातर पिंड बारह प्रकार के होते हैं- 1. अशन 2. पान 3. खादिम 4. स्वादिम 5. वस्त्र 6. पात्र 7. रजोहरण 8. कम्बल 9. सुई 10. अस्त्र 11. नाखून काटने का साधन और 12. कान का मैल निकालने का साधन ।
सामान्यतया साधु या साध्वी जिस शय्यातर के आवास में रुके उसके वहाँ से पहले दिन को छोड़कर जितने दिन तक रहें उतने दिन उन्हें उक्त बारह पिंडों में से किसी भी वस्तु को ग्रहण करना वर्जित माना गया है। यदि उपाश्रय के अनेक मालिक हों या उपाश्रय श्रीसंघ का हो तो प्रतिदिन एक घर शय्यातर रखना चाहिए।
शय्यातरपिण्ड सभी तीर्थंकर के साधु-साध्वियों के लिए निषिद्ध कहा गया है, क्योंकि शय्यातर पिण्ड ग्रहण करने से निम्न दोष लगते हैं-5
(i) अज्ञात भिक्षा का अपालन - जैन मुनि को बिना बताये घरों से लाकर भोजन करना कल्पता है जबकि शय्यातर के घर का भोजन करने पर अज्ञात भिक्षा का पालन नहीं हो पाता है ।
(ii) उद्गम की अशुद्धि - शय्यातर के घर का भोजन करने पर अनेक साधुओं के भोजन, पानी आदि कार्यों के लिए बार-बार जाने से उद्गम दोषों में से कोई भी दोष लग सकता है।
(iii) अविमुक्ति- आहारादि की लोलुपता के कारण शय्यातर के स्थान को छोड़ने की इच्छा नहीं होती है। इससे साधुओं की लोभवृत्ति का परिचय भी मिलता है।