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श्रमण का स्वरूप एवं उसके विविध पक्ष...61
12. समणोत्ति संजदोत्ति य, रिसि मुणि साधुत्ति वीदरागोत्ति। णामादि सुविहिदाणं, अणगार भदंत दंदोत्ति।
मूलाचार, 9/888 13. विशेषावश्यकभाष्य-भाषान्तर कर्ता चुनीलाल हकमचंद, गा. 7, पृ.-12-13 14. वही, पृ. 13 15. निशीथभाष्य, गा. 1390 16. वही, गा. 1391-92 17. स्थानांगसूत्र, संपा. मधुकर मुनि, 5/3/184 18. प्रवचनसारोद्धार, गा. 731-33 19. वही, गा. 103-123 20. स्थानांगसूत्र, 5/3/184 21. भगवतीसूत्र, टीका. अभयदेवसूरि, 25/6/751, पृ. 891 22. व्यवहारभाष्य, गा. 834, 835, 852-856,1522,882-886 की वृत्ति
888-890 23. आवश्यक हारिभद्रीय टीका, वन्दनाध्ययन, पृ. 518 24. प्रवचनसारोद्धार, गा. 731-33, 103-123 25. महाभारत अनुशासनपर्व, उद्धृत-जैन, बौद्ध, गीता के आचार दर्शनों का
तुलनात्मक अध्ययन, पृ. 330 . 26. मनुस्मृति, 6/89 27. ज्येष्ठाश्रमोगृही। महाभारत शान्तिपर्व, 23/5 28. उवासगदसाओ, संपा. मधुकर मुनि, 1/12 29. उत्तराध्ययन सूत्र, संपा. मधुकरमुनि, 9/38-40 30. जैन आचार सिद्धान्त और स्वरूप, पृ. 364 31. उरग गिरि जलण सागर, गगण तरूगणसमो य जो होई। भमर मिग धरणि जलरूह, रवि पवण समो यतो समणो ।
विस तिणिस बाउ वंजुल, कणवीरूप्पलसमेण समणेण। भमरूं दुर णडकुक्कुड, अद्दागसमेण भवितव्व।।
दशवैकालिकनियुक्ति, 63-64 32. जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भा. 6, पृ. 228