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60... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
उत्पन्न होता है या मोक्ष में जाता है जबकि श्रावक जघन्यतः सौधर्मकल्प में और उत्कृष्टतः अच्युतकल्प में ही उत्पन्न होता है।
सन्दर्भ - सूची
1. जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भा. 2, पृ. 326
2. समयाए समणो होइ । उत्तराध्ययनसूत्र, 25/30 3. उत्तराध्ययननिर्युक्ति, (नियुक्ति संग्रह), 376 4. सूत्रकृतांगसूत्र, संपा. मधुकर मुनि 1/16/635 5. श्राम्यतीति श्रमणाः तपस्यन्तीत्यर्थः ।
दशवैकालिक हारिभद्रीय टीका 1/3, पृ. 67
6. श्रमणसूत्र, उपा. अमरमुनि, पृ. 55-56 7. न मुण्डकेन समणो, अब्बतो अलिकं भणं । इच्छालोभसमापन्नो, समणो किं भविस्सति ॥
यो च समेति पापानि, अणुं थूलानि सब्बसो । समितत्ता हि पापानं, समणो ति पवुच्चति ।। धम्मपद-राहुल सांकृत्यायन, 264-2651
8. सव्वपापस्स अकरणं, कुसलस्य उपसम्पदा । सचित्तपरियोदपनं, एतं बुद्धानं सासनं ॥
वही, 183 9. पुत्रैषणा वित्तैषणा लोकैषणा मया परित्यक्ता मत्तः सर्व भूतेभ्यो ऽभयमस्तु । नीतिशास्त्र की रूपरेखा, पृ. 101 उद्धृत-जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन,
पृ. 326
10. सूत्रकृतांगसूत्र, संपा. पुण्यविजय, 1/16, सू. 631 की चूर्णि, पृ. 246 11. पव्वइए अणगारे, पासंडी चरक तावसे भिक्खू ।
परिवायए च समणे, णिग्गंथे संजए मुत्ते।।
तिण्णे या दविए, मुणी य खंते य दंत विरए य। लूहे तीरट्ठी य, हवंति समणस्स णामाई || दशवैकालिकनियुक्ति, 65-66