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________________ श्रमण का स्वरूप एवं उसके विविध पक्ष... 59 करनी चाहिए। 14. मैत्री आदि चार भावनाओं का निरन्तर चिन्तन करना चाहिए। 15. उपर्युक्त नियमों के प्रति सावचेत रहने वाला एवं तद्रूप वर्त्तन करने वाला साधक अनुत्तर विमान के सुख का साक्षात अनुभव करता है । साधु और श्रावक में मुख्य भेद के शास्त्रीय कारण आवश्यकचूर्णि में साधु और गृहस्थ प्रकार बताये गये हैं- 188 मध्य मुख्यतया पाँच अन्तर इस समिति पालन की दृष्टि से - साधु की समिति यावत्कथिक होती है और श्रावक की इत्वरिक। साधु दशविध चक्रवाल सामाचारी का सम्पूर्ण रूप से सदैव पालन करता है। श्रावक उसका देशतः कदाचित पालन करता है। श्रुत - अध्ययन की दृष्टि से - साधु जघन्यतः आठ प्रवचनमाता का और उत्कृष्टतः द्वादशांग का अध्ययन कर सकता है जबकि श्रावक जघन्य से और उत्कृष्ट से षड्जीवनिकाय के सूत्र और अर्थ को पढ़ सकता है। पिण्डैषणा (दशवैकालिक सूत्र का पंचम ) अध्ययन को सूत्रत: नहीं पढ़ सकता है किन्तु उसका अर्थ सुन सकता है। कर्मबंध और वेदन की दृष्टि से - साधु के चार प्रकार का कर्मबंध हो सकता है - - सात-आठ कर्मों का, छह कर्मों का, एक कर्म (सातावेदनीय) का अथवा उसके अबंध भी होता है। श्रावक के सात-आठ कर्मों का बंध होता है। साधु सात-आठ कर्मों का अथवा चार कर्मों का (केवली की अपेक्षा) वेदन करता है। श्रावक सात-आठ कर्मों का वेदन करता है। प्रत्याख्यान की दृष्टि से - जैन मुनि पाँच महाव्रत और रात्रिभोजनविरमण व्रत इन छह व्रतों को यावज्जीवन के लिए स्वीकार करता है। श्रावक एक, दो अथवा सभी व्रत स्वीकार कर सकता है । साधु एक बार सामायिक ग्रहण करता है जबकि श्रावक बार-बार ग्रहण कर सकता है । साधु के एक व्रत का भंग होने पर सभी व्रतों का भंग हो जाता है जबकि श्रावक के एक व्रत का भंग होने पर सब व्रतों का भंग नहीं होता है। चारों गति की दृष्टि से - मुनि हो या गृहस्थ, यदि वह सम्यक रूप से व्रतों का पालन कर रहा है तो स्वर्ग में जाता है। जिसने संयम की विराधना नहीं की हो वैसा साधु जघन्यतः सौधर्मकल्प में और उत्कृष्टतः सर्वार्थसिद्ध विमान में
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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