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58...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
10. ध्यान शुद्धि-शुभोपयोग से शुद्धोपयोग में स्थिर होना अथवा समस्त प्रकार की शुभाशुभ प्रवृत्तियों का परिहार करके आत्मस्वरूप का चिन्तन करना ध्यानशुद्धि है।187 ___जो उद्यमशील मुनि इस चर्याविधि का परिपूर्ण रूप से अनुपालन करते हैं, वे उत्तम स्थान को प्राप्त करते हैं। श्रमण जीवन की आवश्यक शिक्षाएँ
__ कुछ साधक मुनि धर्म स्वीकार करने के पश्चात भी तद्योग्य आराधना हेतु दुर्बल मन वाले बन जाते हैं और यत्नसाध्य प्रवृत्ति से विमुख होने लगते हैं। इस तरह की आत्माएँ कल्याण मार्ग की ओर अभिमुख हो साधु जीवन को सफल कर सकें, एतदर्थ प्रत्येक श्रमण-श्रमणी को अग्रलिखित शिक्षाओं का परिपालन करना चाहिए1. सर्व प्रकार की साधु क्रियाएँ शुद्ध विधिपूर्वक करनी चाहिए। 2. किसी तरह की फलाकांक्षा के बिना विविध प्रकार के तपश्चरण में
वीर्योल्लासपूर्वक रत रहना चाहिए। 3. अठारह हजार शीलांग के पालन में उद्यमशील रहना चाहिए। 4. परीषहों एवं उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन करना चाहिए। 5. पाँच समिति और तीन गुप्ति का निरतिचारपूर्वक पालन करना चाहिए। 6. ज्ञान-ध्यान-स्वाध्यायादि शुभ प्रवृत्ति में निरत रहना चाहिए। 7. सर्वज्ञ प्रणीत वस्तु स्वरूप के विषय में स्वबुद्धि का प्राधान्य नहीं रखना
चाहिए। 8. रस-गारवादि का त्याग कर शास्त्रोक्त विधिपूर्वक गोचरी में अप्रमत्त रहना
चाहिए। 9. प्राणी मात्र के लिए हितकारी धर्मोपदेश की प्रवृत्ति करनी चाहिए। 10. द्रव्य-क्षेत्रादि के ममत्व का परित्याग कर नवकल्पी विहार करना चाहिए। 11. मनि धर्म का आचरण कितना और कैसे किया जा रहा है उसका माप
तोल करते रहना चाहिए। 12. यथाशक्य शुभ प्रवृत्तियों में सतत प्रवर्त्तमान और पापकार्यों से विरत
रहना चाहिए। 13. सूक्ष्म जीवों को भी मानसिक पीड़ा न हो ऐसी यतनापूर्वक प्रवृत्ति