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श्रमण का स्वरूप एवं उसके विविध पक्ष...57 अन्तराल किए बिना न रहे। मुनि एक मास के लिए जहाँ भी रहे 1. इन्द्र 2. क्षेत्रदेवता 3. राजा 4. साधु 5. नगर मुखिया एवं 6. गुरु-इन छह की अनुमति लेकर रहे। इस विषयक विस्तृत वर्णन अध्याय-13 के अन्तर्गत करेंगे। श्रमण चर्या के आवश्यक अंग
दिगम्बर साहित्य में चारित्रनिष्ठ अनगार के लिए दस शुद्धियों का पालन करना आवश्यक बतलाया गया है जो निम्न हैं
1. लिंग शुद्धि-लिंग का अर्थ है चिह्न। निर्ग्रन्थ मुद्रा धारण करके तदनुरूप आचरण करना लिंगशुद्धि है। स्पष्ट शब्दों में कहें तो दैहिक स्नानादि का वर्जन कर नग्नता धारण करना, केशलोंच करना, पिच्छिका ग्रहण करना और रत्नत्रय एवं तप का आचरण करना लिंगशुद्धि है। तत्त्वत: “मैं साध हँ' इसका बोध करने के लिए एवं भाव विशुद्धि के लिए लिंग धारण करते हैं।
2. व्रत शुद्धि-पाप कार्यों से निवृत्त होना व्रत है। अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों का निरतिचार पालन करना व्रतशुद्धि कहलाता है।
3. वसति शुद्धि-स्त्री, पशु और नपुंसक से रहित स्थान पर रहना वसति शुद्धि है।
4. विहार शुद्धि-अनियतवास करना विहार कहलाता है। सम्यग्दर्शन आदि को निर्मल करने के लिए सभी देशों में विहार करना अथवा अनुकूलता वश या गृहस्थ की भक्तिवश किसी प्रतिबद्ध देश में विहार नहीं करना, विहार शुद्धि है।
5. भिक्षा शुद्धि-आधाकर्मादि बयालीस दोषों से रहित विधिपूर्वक आहार ग्रहण करना भिक्षाशुद्धि है।
6. ज्ञान शुद्धि-वस्तु स्वरूप का यथावस्थित ज्ञान करना अथवा जड़चेतन का यथार्थ बोध करना ज्ञानशुद्धि है।
7. उज्झन शुद्धि-दैहिक विभूषा का त्याग करके उसके प्रति ममत्व भाव का विसर्जन करना उज्झनशुद्धि है।
8. वाक्य शुद्धि-स्त्री कथा, कलह, मिथ्याभाषण आदि से रहित हितमित-परिमित वचन बोलना वाक्यशुद्धि है।
9. तपःशुद्धि-पूर्वसंचित कर्मों का विशोधन हो ऐसे अनशन आदि बारह प्रकार के तप का आचरण करना तप शुद्धि है।