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________________ श्रमण का स्वरूप एवं उसके विविध पक्ष...53 है जबकि साधुविधिप्रकाश185 में 'उग्घाड़ा पोरिसी' एवं 'पडिलेहण करूं' इन दो आदेशों का वर्णन है। यहाँ पौरुषी विधि साधुविधिप्रकाश के मतानुसार उपदर्शित की गई है। जैन मुनियों की ऋतुबद्ध चर्या विधि जैन मुनि किस ऋतु में कौनसी चर्या का विशेष रूप से आचरण करें? इस सम्बन्ध में पूर्वाचार्यों का दृष्टिकोण अत्यन्त व्यापक रहा है। उन्होंने शरीर, मन एवं प्रकृति जगत को ध्यान में रखते हुए आचार विधियों का निरूपण किया है। ____ आचारदिनकर में यह चर्चा संयुक्त रूप से उपलब्ध होती है। वह संक्षेप में निम्नानुसार है186_ हेमन्त ऋतु-मिगसर और पौष-ये दोनों महीने हेमन्तऋतु के हैं। इन दिनों मुनिगण यथाशक्ति निर्वस्त्र रहें, अल्पनिद्रा लें, अल्प आहार करें, देह पर तेल का मर्दन न करें, केशराशि न बढ़ाएँ, शीत के निवारणार्थ रूई की शय्या पर शयन न करें, शरीर को अग्नि का ताप न दें। जो आहार रसोत्पादक हो ऐसे गर्म, तीक्ष्ण, खट्टे एवं मधुर आहार की इच्छा न रखें, पैर में जते न पहनें, उष्णजल आदि से स्नान न करें और प्रज्वलित दीपक नहीं बुझाएं। __ जो स्थान ऊपर से खुला हो, वहाँ शयन न करें। विहार करते समय अथवा उपाश्रय से बहिर्गमन करें तब ऊनी कामली सूती वस्त्र से संयुक्त करके ही ओढ़ें। मल, मूत्र, थूक आदि को अधिक समय तक न रखते हुए, तत्काल परिष्ठापित करें। शिशिर ऋतु-माघ और फाल्गुन-ये दो मास शिशिर ऋतु के हैं। आचार्य वर्धमानसूरि के अनुसार मुनि को शिशिर ऋतु में हेमन्त ऋतु के समान ही आचरण करना चाहिए। विशेष इतना है कि इन दिनों अधिक मात्रा में जल नहीं पीएं और श्लेष्म को किंचित मात्र भी निगले नहीं। वसंत ऋतु-चैत्र और वैशाख-ये दो मास वसंत ऋतु के हैं। मुनि इन ऋतुओं में शरीर पोषण का सर्वथा त्याग करें, तदर्थ नीरस आहार करें। स्वच्छ या नये वस्त्र धारण न करें। यद्यपि मुनि यावज्जीवन ब्रह्मचर्यव्रत का अनुपालन करते हैं, फिर भी इस काल में विशेष सावधानी रखें क्योंकि यह समय कामभोग की स्मृति का कारक माना गया है। निर्दोष आहार द्वारा संयम की उत्कृष्ट साधना करते हुए प्रतिदिन विहार
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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