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52...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन एक प्रहर जितना काल पूर्ण हो चुका है इतना कहकर, स्थापनाचार्य के सम्मुख ऊनी वस्त्र (कंबल) बिछायें। फिर उस पर सभी पात्रों को अलग-अलग करके रखें। उसके बाद सभी साधु एक खमासमण देकर ईर्यापथिक प्रतिक्रमण करें। तदनन्तर पुन: एक खमासमण दें। फिर एक शिष्य अर्धावनत मुद्रा में स्थित होकर कहे-'इच्छा संदि.भगवन् ! उग्घाडा पोरिसी। गुरु कहें-'तहत्ति'।
तत्पश्चात गुरु एक खमासमण देकर-'इच्छा. संदि. भगवन् ! पडिलेहणं करूं' ऐसा बोलकर 50 बोलपूर्वक मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करें। उसके बाद एक शिष्य खमासमण देकर कहे-'इच्छा. संदि. भगवन् ! पडिलेहणं करूं'। तब गुरु कहे-'करेह'। शिष्य-'इच्छं' कहे। उसके बाद सभी साधु मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन करके शास्त्र निर्दिष्ट विधि के क्रमानुसार पात्र सम्बन्धी समस्त उपकरणों की प्रतिलेखना करें।176
तुलना-दिन के प्रथम प्रहर के अन्तिम भाग में करने योग्य विधि 'उग्घाड़ा पौरुषी' के नाम से प्रचलित है। जब हम इस विधि के सन्दर्भ में ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करते हैं तो सर्वप्रथम उत्तराध्ययनसूत्र में इतना निर्देश प्राप्त होता है कि मुनि दिन की प्रथम पौरुषी के चतुर्थ भाग में भाण्डोपकरण की प्रतिलेखना करें। इसके अतिरिक्त अन्य आगमों में यह चर्चा प्राप्त नहीं होती है।177 __आगमेतर साहित्य का अवलोकन करते हैं तो ओघनिर्यक्ति,178 विशेषावश्यकभाष्य|79 एवं उत्तराध्ययनटीका में पौरुषी का कालमान, पौरुषी का प्रमाण, पौरुषी यन्त्र आदि का वर्णन मिलता है किन्तु विधि के सन्दर्भ में कुछ भी उपलब्ध नहीं होता है।180
तदनन्तर परवर्तीकालीन पंचवस्तुक181, प्रवचनसारोद्धार182, धर्मसंग्रह183 आदि में पौरुषी का स्वरूप एवं प्रतिलेखना काल के कुछ उल्लेख मिलते हैं। जब हम मध्यकालवर्ती ग्रन्थों का अध्ययन करते हैं तो वहाँ विधिमार्गप्रपा और साधुविधिप्रकाश में पौरुषी विधि प्राप्त होती है। इससे सुनिश्चित होता है कि उग्घाड़ा पौरुषी काल में पात्र प्रतिलेखना से सम्बन्धित कोई विधि सम्पन्न की जाये, यह परम्परा विक्रम की 10वीं शती के पश्चात अस्तित्व में आई है।
यदि तुलनात्मक दृष्टि से विचार किया जाए तो विधिमार्गप्रपा और साधुविधिप्रकाश में इस विधि को लेकर किंचित भेद दिखता है। विधिमार्गप्रपा184 में 'पडिलेहणं संदिसावेमि' 'पडिलेहणं करेमि' ऐसे दो आदेश लेने का उल्लेख