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54... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
करें। संभव हो तो स्त्री एवं पशुओं से रहित निर्जन वन में रहें। अध्ययनशील मुनि चित्त समाधि हेतु उद्यानादि शान्त - एकान्त स्थान पर रहें। अस्वाध्याय निवारण के लिए कल्पतर्पण की विधि करें।
प्राचीनकाल से यह देखा और कहा जाता है कि चैत्रशुक्ला पंचमी से लेकर वैशाख कृष्णा प्रतिपदा तक अधिकांश स्थानों पर कुलदेवताओं की पूजा के लिए महिष आदि पशुओं का वध किया जाता है अतः इन दिनों मुनियों के लिए स्वाध्याय करना वर्जित माना गया है। मुख्य रूप से आगम पाठ का अभ्यास करना नहीं कल्पता है। इस अस्वाध्यायकाल को दूर करने के लिए कल्पतर्पण विधि की जाती है। यह विधि मुनियों के स्वाध्याय से सम्बन्धित है, इसलिए इसकी चर्चा योगोद्वहन विधि के अन्तर्गत करेंगे। सामान्यतः कल्पत्रेप विधि कार्तिक कृष्णा प्रतिपदा के पश्चात किसी शुभ दिन में की जाती है ।
ग्रीष्म ऋतु-ज्येष्ठ एवं आषाढ़ - ये दो महीने ग्रीष्म ऋतु के कहलाते हैं। इन ऋतुओं में मुनिजन आत्म परिष्कार हेतु कायोत्सर्ग में निरत रहें। आतापना के द्वारा कर्मराशि को भस्मीभूत कर दें। इस समय शीतल प्रदेशों में वास करने की आकांक्षा न रखें और न ही ठण्डे स्थान का सेवन करें।
शीतल जल की भी इच्छा न करें और न ही उसका सेवन करें। मुनि गर्मी से व्याकुल होकर कभी स्नान न करें । दशवैकालिकसूत्र के छठे अध्ययन में वर्णित मुनियों के अठारह आचार स्थानों में अस्नानव्रत का भी अन्तर्भाव है यानी साधु जीवनपर्यन्त अस्नानव्रत का पालन करते हैं।
आगमविधि के अनुसार मुनि शरीर पर उबटन हेतु गन्ध चूर्ण, कल्क, पद्मकेशर आदि का कभी प्रयोग न करें। ग्रीष्म ऋतु में विशेष रूप से जूं आदि की उत्पत्ति न हो, इसका ध्यान रखें। यदि पसीने के कारण षट्पदी की उत्पत्ति हो गई हो तो उसकी रक्षा करें। दीर्घकाल तक रखे गए प्रासुक अन्न एवं पेय पदार्थों का सेवन न करें।
वर्षा ऋतु - श्रावण एवं भाद्रपद के महीने वर्षा ऋतु के माने जाते हैं। वर्षा काल में जीव-जन्तुओं की अधिक उत्पत्ति होती है, अतः साधु-साध्वी इस ऋतु में विहार न करें। आचारांगसूत्र के अनुसार जो आवास स्थान गृहस्थों के द्वारा लीप-पोतकर, मरम्मत आदि करवाकर स्वयं के लिए तैयार किये गये हैं मुनि ऐसे निर्दोष स्थान पर रहें।