________________
46...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
इस सूत्र में रात्रि सम्बन्धी सामाचारी का वर्णन करते हुए बताया गया है कि साधु-साध्वी रात्रि के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में निद्रा और चतुर्थ प्रहर में पुन: स्वाध्याय करें।162
इसी क्रम में यह भी कहा गया है कि अन्तिम प्रहर के मध्य भाग में स्वाध्यायार्थ प्राभातिक कालग्रहण करें तथा चतुर्थ भाग में रात्रिक प्रतिक्रमण का समय ज्ञात कर वह विधि सम्पन्न करें।163
उक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि मुनि को दिन के प्रथम एवं अन्तिम तथा रात्रि के प्रथम एवं अन्तिम इन चार प्रहरों में स्वाध्याय करना चाहिए, दिन और रात्रि के दूसरे प्रहरों में ध्यान तथा दिन के तीसरे प्रहर में भिक्षाटन आदि शारीरिक क्रियाएँ और रात्रि के तीसरे प्रहर में निद्रा लेनी चाहिए।
परवर्ती आचार्यों के अनुसार साधु-साध्वी रात्रि पूर्ण होने में चार घड़ी (लगभग डेढ़ घण्टा) शेष रहे, तब परमेष्ठी मन्त्र का स्मरण करते हुए निद्रा से उठे। उसके बाद मैंने क्या किया है? मेरे लिए क्या करना शेष है? मैं क्या करने में समर्थ हूँ? इस तरह कुछ पलों तक आत्मस्वरूप का चिन्तन करें।164
• तत्पश्चात लघुनीति की शंका हो तो संस्तारक से उठे। फिर दण्डासन से शय्या की प्रतिलेखना और पैरों का प्रमार्जन करके प्रस्रवण (मूत्र परिष्ठापन) भूमि तक जाएँ। फिर प्रस्रवण भूमि को दण्डासन से प्रतिलेखित कर एक पात्र में मूत्र का त्याग करें। फिर वसति के बाहर स्थण्डिल भूमि पर उसका विधिपूर्वक उत्सर्ग करें। फिर संस्तारक भूमि के समीप आकर पूर्व सन्ध्या में प्रतिलेखित काष्ठ के आसन पर या पादपोंछनक को बिछाकर उस पर बैठ जायें।165
• तत्पश्चात ईर्यापथिक प्रतिक्रमण करके रात्रिकृत पापों की आलोचना करें। फिर शक्रस्तव का पाठ बोलकर चैत्यवन्दन करें। फिर रात्रिकाल में दुःस्वप्न आया हो तो उसकी विशुद्धि के लिए सत्ताईस श्वासोच्छवास का कायोत्सर्ग करें।166
• फिर तिलकाचार्य सामाचारी के अनुसार गुरु एवं ज्येष्ठ साधुओं को वन्दन करें। फिर गुरु से आदेश लेकर स्वाध्याय करें।167
• आचार्य वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर के मतानुसार कायोत्सर्ग पूर्णकर चतुर्विंशतिस्तव बोलें। उसके बाद ‘इच्छामि पडिक्कमिउं पगाम सिज्झाए' से