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श्रमण का स्वरूप एवं उसके विविध पक्ष...39 भिक्षु कहा गया है। विशिष्ट संहनन और श्रुतधर मुनियों के द्वारा संयम विशेष की साधना करने के लिए जिन कठोर अभिग्रहों को स्वीकार करते हैं, उन्हें भिक्षुप्रतिमा कहा जाता है तथा अभिग्रह विशेष की प्रतिज्ञा धारण करने वाले मुनि को प्रतिमाधारी कहते हैं।
जैन साहित्य में बारह प्रतिमाओं का वर्णन सर्वप्रथम समवायांगसूत्र में मिलता है।132 इसमें बारह प्रतिमाओं के नामोल्लेख मात्र की ही चर्चा है। इसके अनन्तर यह उल्लेख भगवतीसूत्र133 में भी सामान्य रूप में प्राप्त होता है। इसके पश्चात दशाश्रुतस्कन्धसूत्र134 में इसकी विस्तृत चर्चा परिलक्षित होती है। तदनन्तर यह वर्णन आवश्यकनियुक्ति135 आचार्य हरिभद्रसूरिकृत पंचाशक136, आचार्य नेमिचन्द्रसूरिकृत प्रवचनसारोद्धार137, आचार्य वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर138 आदि ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। इन ग्रन्थों का सर्वाङ्गीण अध्ययन करने पर यह स्पष्ट होता है कि भिक्षु प्रतिमा की सविस्तृत चर्चा सर्वप्रथम दशाश्रुतस्कन्ध में की गई है। तत्पश्चात पंचाशकप्रकरण में प्रतिमा विषयक मत-मतान्तर भी प्रस्तुत किये गये हैं तथा किञ्चिद् विषयों को शंकासमाधानपूर्वक स्पष्ट किया गया है। प्रवचनसारोद्धार टीका में भी कुछ विशेष बातें कही गई हैं। इसके अतिरिक्त शेष ग्रन्थों में इसका सामान्य स्वरूप ही निरूपित है।
यदि भिक्षु प्रतिमाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया जाये तो इनके नाम, क्रम, काल एवं स्वरूप की अपेक्षा सभी में लगभग साम्य है किन्तु तप के सम्बन्ध में निर्जल एवं सजल को लेकर कुछ आचार्यों में मतभेद हैं।
इस दुषम काल में संहनन की दौर्बल्यता, शारीरिक असमर्थता, धैर्य बल एवं परीषह की असहिष्णुता के कारण प्रतिमाओं को वहन करना दुष्कर है, अत: वर्तमान में भिक्षु प्रतिमा धर्म प्राय: व्युच्छिन्न हो चुका है। यद्यपि आचार्य हरिभद्रसूरि कहते हैं कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से जो साधु प्रतिमाकल्प को स्वीकार नहीं कर सकते उन्हें भी गीतार्थ मान्य एवं शासन प्रभावक अभिग्रहों को और विशिष्ट होने के कारण शासन प्रभावना का हेतु हो, ऐसे अभिग्रहों को मनसा और कर्मणा स्वीकारना चाहिए जैसे- ठण्ड आदि को सहन करना, उत्कट आसन पर बैठना आदि। यदि शक्ति होने पर भी मद और प्रमाद के वशीभूत होकर अभिग्रह धारण नहीं करते हैं तो अतिचार लगता है।