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26...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता
दूसरा प्रयोजन यह माना गया है कि तीर्थङ्कर परमात्मा स्वभावतः प्राणीमात्र के कल्याणकारक और दुःख निवारक होते हैं, अत: उनके प्रति श्रद्धापूर्वक किया गया अनुष्ठान निश्चित रूप से कल्याणप्रद एवं मंगलदायी होता है।
तीसरा प्रयोजन यह कहा जा सकता है कि व्रत आदि का स्वीकार करना सामान्य व्यक्तियों के लिए सुगम नहीं है किन्तु चारित्रमोहनीय आदि के क्षयोपशम से व्रत ग्रहण की भावना उत्पन्न हो जाये तो उसे अंगीकार करने हेतु पृष्ट आलम्बन अवश्य होना चाहिए और वह साक्षात तीर्थङ्कर प्रभु या उसकी प्रतिकृति रूप जिनप्रतिमा ही है। आलम्बन दृढ़ हो तो स्खलना या फिसलन की सम्भावनाएँ कम रहती है, अत: इस प्रयोजन से भी नन्दीरचना की मूल्यवत्ता है।
नन्दि रचना का एक हेतु यह भी कहा जा सकता है कि व्रतादि स्वीकार एवं सूत्रादि ग्रहण के मूल ध्येय को जिसने प्राप्त कर लिया है वह साक्षात उपस्थित हो, तो जिस व्यक्ति के द्वारा व्रतादि का स्वीकार किया जा रहा है उसकी वह भावनाएँ और अधिक बलवती हो जाती हैं, यह मनोवैज्ञानिक सत्य भी है।
नन्दीरचना के सम्मुख क्रियानुष्ठान करने की पांचवाँ कारण यह भी संभव यह है कि जिन महापुरुषों के द्वारा व्रतादि मार्ग का सेवन किया गया है और उस मार्ग के द्वारा अनुभूत सत्य को प्रतिपादित एवं अन्यों के लिए वह मार्ग अपनाने का उपदेश दिया गया है, उन उपकारी जिनेश्वर भगवान की सानिध्यता को स्वीकार करना, व्रतग्राही के लिए अनिवार्य है। इससे कृतज्ञता गुण प्रकट होता है तथा गृहीत व्रतादि के अनुपालन में उत्तरोत्तर वृद्धि होती है।
नन्दीरचना (जिनप्रतिमा) के सम्मुख व्रतादि ग्रहण करने का एक प्रयोजन यह भी माना जा सकता है कि इससे व्रतपालन के प्रति सजगता बनी रहती है, व्रतखण्डित न हो जाये इसका भय भी सदैव बना रहता है।
समाहारत: उपकारी का स्मरण, शुभ अध्यवसायों की अभिवृद्धि एवं पुष्ट आलम्बन की स्मृति को सजीव रखने के प्रयोजन से नन्दिरचना की जाती है।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि तीर्थङ्कर परमात्मा की साक्षात उपस्थिति में व्रतादि का स्वीकार देव रचित समवसरण में किया जाता है तथा उनकी अनुपस्थिति में व्रतादि अनुष्ठान जिनालय या नन्दीरचना के समक्ष किये जाते हैं। सामान्यतया नन्दीरचना में काष्ठ या रजत से निर्मित त्रिगड़ा होता है। यह त्रिगड़ा