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उपसंहार
देव,
ब्रह्मचर्य व्रतग्रहण विधि का मार्मिक विश्लेषण
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गुरु और आत्मा की साक्षीपूर्वक इन्द्रियों और मन को संयमित करने का संकल्प करते हुए आत्म स्वरूप में स्थित हो जाना परमार्थतः ब्रह्मचर्यव्रत है। इस व्रत का ग्रहण ब्रह्मचर्य जैसे दुष्कर व्रत का सम्यक् अभ्यास करते हुए सर्वविरति धर्म में प्रवेश पाने के उद्देश्य से किया जाता है। अतः इस व्रत में अभ्यस्त हुआ साधक ही पंचमहाव्रतों का निर्दोष पालन करने में सक्षम बनता है । इसे प्रव्रज्या ग्रहण का प्रशिक्षण या परीक्षण काल भी कह सकते हैं। आचार्य वर्धमानसूरि के मतानुसार प्रव्रज्या के लिए उत्सुक गृहस्थ को कुछ काल के लिए ब्रह्मचर्यव्रत अवश्य अंगीकार करना चाहिए, तत्पश्चात प्रव्रज्या मार्ग पर आरूढ़ होना चाहिए। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से आचार्य वर्धमानसूरि का यह अभिमत निःसन्देह अनुसरणीय है। वर्तमान में इस व्रत के पीछे प्रव्रज्या ग्रहण का मनोरथ नहीं देखा जाता। प्रायः भोगविलास एवं ऐन्द्रिक सुख का परित्याग करने के लिए यह व्रत स्वीकार किया जाता है।
सामान्यतया ब्रह्मचर्य व्रतग्रहण की काल की अपेक्षा दो कोटियाँ हैं 1. नियतकाल और 2. जीवनपर्यन्त । साधक की इच्छानुसार यह व्रत निश्चित अवधि के लिए और यावज्जीवन के लिए द्विविध प्रकार से ग्रहण किया जा सकता है। सामान्यतः विद्याध्ययन एवं उपनयन काल में बालक को ब्रह्मचारी बनाया जाता है, उस समय नियतकाल के लिए ब्रह्मचर्यव्रत का आरोपण करते हैं। अध्ययन काल पूर्ण हो जाने पर उस व्रत का विसर्जन कर देते हैं। वर्तमान की श्वेताम्बर - परम्परा में व्रतग्रहण की यह पहली कोटि अस्तित्व में नहीं है। सम्भवतः तेरापंथ सम्प्रदाय में पारमार्थिक संस्थान में रहते हुए सत्संस्कारों का अर्जन करने वाले मुमुक्षु भाई-बहनों को नियतकाल के लिए ब्रह्मचर्यव्रत की प्रतिज्ञा करवायी जाती है।
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दूसरी कोटि गृहस्थ एवं मुनि दोनों के लिए स्वीकृत है। वस्तुत: जब गृहस्थ यावज्जीवन के लिए ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण करता है तभी वह प्रव्रज्या (संन्यास) के मार्ग पर अग्रसर होता है। इस सम्बन्ध में भी तीन विकल्प हैं। कुछ गृहस्थ ब्रह्मचर्यव्रत को यावज्जीवन के लिए स्वीकार कर गृहस्थावस्था में ही रहते हैं। कुछ श्रावक व्रत स्वीकार के कुछ समय पश्चात संयम धर्म स्वीकार कर लेते हैं जैसे - क्षुल्लक। कुछ जन इस व्रत के ग्रहण पूर्वक प्रव्रज्या धारण करते हैं।