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10...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता
वर्तमान की दिगम्बर-परम्परा में तीनों विकल्प विद्यमान हैं। श्वेताम्बर-परम्परा में क्षुल्लक दीक्षा की परम्परा प्रचलित नहीं है, अत: वहाँ दो ही विकल्प प्रचलन में है।
यदि इस व्रत की उपादेयता को लेकर विचार किया जाए तो पाते हैं कि इसके माध्यम से साधक अलौकिक शक्ति को प्रकट कर लेता है। सागारधर्मामृत में कहा गया है कि ब्रह्मचर्यव्रत का निरतिचार पालन करने वाले साधक को विद्या साधित, सिद्ध और वरप्रदा होती है और उसके द्वारा मन्त्र पढ़ने मात्र से वे सिद्ध हो जाते हैं। देव अनुचर के समान उसकी सेवा में उपस्थित रहते हैं तथा विशुद्ध ब्रह्मचारी के नामोच्चारणमात्र से क्रूर राक्षस आदि भी शान्त हो जाते हैं।12
__इस व्रताचरण के अभ्यास से भौतिकवादी दृष्टिकोण का उन्मूलन एवं अध्यात्ममूलक संस्कृति का बीजारोपण होता है। इससे भष्टाचार, बलात्कार, विलासिता एवं पाशविक वृत्तियाँ भी नियन्त्रित होती हैं तथा अनासक्ति, अपरिग्रह, अनेकान्त आदि सिद्धान्त वैयक्तिक जगत में प्रयोगात्मक स्वरूप धारणकर वैश्विक कल्याण के चरम सोपानों को स्पर्श कर लेते हैं।
अन्तत: यह स्पष्ट कर देना अत्यन्त आवश्यक है कि सामान्यतया ब्रह्मचर्यव्रत गृहस्थ द्वारा ग्रहण किया जाता है। इस दृष्टि से गृहस्थ व्रतारोपण संस्कार के अन्तर्गत इसका समावेश किया जाना चाहिए, किन्तु इस व्रत का आचार अत्यन्त दुष्कर एवं प्रव्रज्या हेतु दृढ़ भूमिका रूप होने से इसे श्रमणधर्म की कोटि में स्थान दिया गया है। सम्भवत: आचार्य वर्धमानसूरि की भी यही अवधारणा रही होगी, इसीलिए उन्होंने इस व्रत को यति संस्कार के अन्तर्भूत स्वीकार किया है। सन्दर्भ-सूची 1. आचारदिनकर, पृ. 71. 2. वही, पृ. 71. 3. वही, पृ. 71-72. 4. स्थानांगसूत्र, 9/3. 5. समवायांगसूत्र, समवाय 9/51 6. उत्तराध्ययनसूत्र, सोलहवाँ अध्ययन 7. मूलाचार, 11/13-14.