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238...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता अवश्य है, किन्तु अतिसंक्षेप में है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आगमिक टीका साहित्य भी उपस्थापना-विधि का सम्यक् प्रतिपादन नहीं करता है।
जहाँ तक मध्यवर्ती जैन साहित्य का सवाल है वहाँ इस विधि का प्रारम्भिक एवं परिवर्धित स्वरूप हरिभद्रसूरिकृत पंचवस्तुक में परिलक्षित होता है।185 इसमें उपस्थापना-विधि समुचित रूप से उल्लिखित है।
तदनन्तर इस विधि का परिष्कृत एवं विकसित स्वरूप तिलकाचार्य सामाचारी,186 सुबोधासामाचारी,187 सामाचारीप्रकरण,188 विधिमार्गप्रपा,189 आचारदिनकर190 आदि ग्रन्थों में प्राप्त होता है। इनमें यत्किञ्चिद् सामाचारी भिन्नता के साथ यह विधि मूलरूप से विवेचित है। यहाँ परम्परा एवं ग्रन्थ वैशिष्ट्य का ध्यान रखते हुए विधिमार्गप्रपा के अनुसार इस विधि को प्रस्तुत करेंगे। उपस्थापना योग्य शिष्य की परीक्षा विधि
पूर्वाचार्यों के मन्तव्यानुसार नवदीक्षित शिष्य उपस्थापना के पूर्ण योग्य हो जाये, तब भी परम्परागत आचरणवश उसकी योग्यता-अयोग्यता की परीक्षा करनी चाहिए। वह परीक्षा-विधि इस प्रकार है191_
सर्वप्रथम गीतार्थगुरु शिष्य की मनोभूमिका परखने हेतु स्वयं के मलमूत्रादि का विसर्जन जीव-जन्तु युक्त भूमि पर करें। स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग आदि सभी प्रवृत्तियाँ जानबूझकर सचित्त, पृथ्वी आदि पर करें। शरीर शुद्धि के लिए सचित्त जल का उपयोग करें। स्थण्डिल आदि के लिए अग्नि वाले प्रदेश में जायें। पंखे आदि से हवा करें। तृणादि वनस्पति पर चलें, बैठे, खड़े रहें। इसी प्रकार गोचरी के समय सचित्त आहार, सचित्त हाथादि से ग्रहण करें, आहारसम्बन्धी बयालीस दोषों का उपयोग न रखें। ये सभी क्रियाएँ उपस्थापना योग्य शिष्य के समक्ष करें। यदि उस समय इन दोषयुक्त क्रियाओं को देखकर शिष्य स्वयं वैसा आचरण न करे या गुरु को वैसा न करने का निवेदन करे या संघाटक साधु को ‘यह करना अनुचित है' आदि प्रेरणा देने वाले वचन कहें तो समझना चाहिए कि यह शिष्य उपस्थापना के योग्य है। इस प्रकार परीक्षा विधि में सफल हो जाने के पश्चात ही गुरु शिष्य की उपस्थापना करें।