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उपस्थापना (पंचमहाव्रत आरोपण) विधि का रहस्यमयी अन्वेषण... 237 ध्यातव्य है कि आचारांगसूत्र में वर्णित आचार विधियाँ मूलभूत हैं जबकि उत्तरवर्ती सूत्रों में वर्णित आचार मर्यादाएँ परिवर्धित है। आचारचूला में भी आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध की अपेक्षा आचारसंहिताओं में परिवर्तन देखा जाता है। मूलतः तद्युगीन परिस्थितियों को ध्यान में रखकर पूर्ववर्ती आचार्यों ने उत्सर्ग और अपवाद के सिद्धान्तों की स्थापना और उसके आधार पर विधिविधानों का निर्माण किया है । आचारचूला उसी शृंखला की प्रथम कड़ी है। 173
इसी तरह समवायांगसूत्र174 एवं प्रश्नव्याकरणसूत्र 175 में पंचमहाव्रतों की पच्चीस भावनाओं का सम्यक् वर्णन किया गया है। उत्तराध्ययन 176 आदि सूत्रों में पंचमहाव्रत के नामों का स्पष्ट उल्लेख है । दशवैकालिकसूत्र177 में पंचमहाव्रत के आलापक पाठ दिये गये हैं। इसमें छठा रात्रिभोजनविरमणव्रत का आलापक पाठ भी निर्दिष्ट है। इसी प्रकार स्थानांगसूत्र 178 एवं व्यवहारसूत्र179 में उपस्थापना योग्य तीन भूमियों का वर्णन है । किन्तु इन सभी में महाव्रत स्वीकार करवाने की विधि को लेकर कुछ भी चर्चा नहीं की गई है।
जहाँ तक टीका साहित्य का प्रश्न है वहाँ बृहत्कल्पभाष्य में यह उल्लेख है कि जो गुरु सूत्रार्थ की दृष्टि से अप्राप्त, अकथित, अनभिगत और परीक्षित शिष्य की उपस्थापना करता है वह चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का अधिकारी बनता है।180 निशीथभाष्य में यह कहा गया है कि जो शिष्य नवपदार्थों को सुनकर या जानकर उन पर श्रद्धा नहीं करता है उसे उपस्थापित करने पर आज्ञाभंगादि दोष उत्पन्न होते हैं।181 निशीथभाष्य में वयादि की अपेक्षा उपस्थापना करने का भी सूचन किया गया है। 182 इसमें उपस्थापना विधि की संक्षिप्त चर्चा करते हुए इतना मात्र उल्लेख है कि 'आचार्य उपस्थापनीय शिष्य को अपने वामपार्श्व में खड़ा करें, फिर महाव्रत आरोपण के निमित्त लोगस्ससूत्र का कायोत्सर्ग करवायें, फिर प्रकट में लोगस्ससूत्र बोलकर पंचमहाव्रतों का उच्चारण (स्वीकार) करवायें।' इसमें उपस्थापना विधि सम्पन्न करने के लिए प्रशस्त द्रव्य - क्षेत्र व तारा - चन्द्रबल आदि देखने का भी निर्देश किया है। 183 इसके सिवाय आवश्यकचूर्णि, 184 दशवैकालिक की अगस्त्य चूर्णि आदि में पाँच भावनाओं एवं तत्सम्बन्धी विषयों का सम्यक् विवेचन है। इस टीका साहित्य के अध्ययन से यह निर्णीत होता है कि उपस्थापना की प्रारम्भिक चर्चा निशीथभाष्य में
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