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उपस्थापना (पंचमहाव्रत आरोपण) विधि का रहस्यमयी अन्वेषण... 215
गृहस्थ के लिए उत्तरगुण है। 133 गृहस्थ श्रावक आरम्भजन्य हिंसा से पूर्णतः निवृत्त नहीं होता इसलिए रात्रिभोजन से उसके मूलगुण खण्डित नहीं होते, अतः वह श्रावक का उत्तरगुण है जबकि साधु पूर्णत: अहिंसक होते हैं, अतः रात्रिभोजन से उनके मूलगुण खण्डित होते हैं। रात्रिभोजन विरमण से मूलगुणों का संरक्षण होता है। इस प्रकार यह व्रत मूलगुणों का अत्यन्त उपकारी होने से मूलगुण के रूप में स्वीकृत है तथा तप, स्वाध्याय आदि मूलगुणों के अत्यन्त उपकारक न होने के कारण उत्तरगुण हैं। 134 रात्रिभोजन विरमणव्रत की उपादेयता
भोजन जीवन यात्रा का एक अपरिहार्य तत्त्व है। इसके अभाव में किसी भी प्राणी का जीवन टिक नहीं सकता। यद्यपि मानव देह का मुख्य लक्ष्य अनाहारी पद की प्राप्ति है। उस तरह की विशिष्ट साधना के लिए मनुष्य का जीवित रहना भी आवश्यक है और जीवन टिकाये रखने के लिए भोजन आवश्यक है। हम देखते हैं कि जन्म लेने के साथ ही इसकी आवश्यकता प्रारम्भ हो जाती है। जब बच्चा जन्मता है तब जन्म लेने के साथ ही रुदन की क्रिया शुरू हो जाती है उस समय माता के दूध पिलाने पर वह शान्त हो जाता है। इससे सिद्ध है कि जीव की सर्वप्रथम आवश्यकता भोजन है।
भोजन कैसा हो, इसके साथ यह तथ्य भी बहुत महत्त्व रखता है कि भोजन कब हो? क्योंकि असमय में किया गया महान् कार्य भी निरर्थक हो जाता है, तब भोजन जो मुख्य रूप से हमारी क्षुधा को शांत करता है। साथ ही वह हमारे शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक सभी क्षेत्रों को प्रभावित करता है। तब उसे तो और भी अधिक सजगता के साथ ग्रहण किया जाना चाहिए।
सर्वप्रथम तो जब हमें अच्छी भूख लगे तभी भोजन ग्रहण करना चाहिए और वह भी निर्धारित समय पर, यह सब हमारी जीवन शैली और आदतों पर निर्भर करता है। हम जैसी आदत डालते हैं शरीर को वैसी ही भूख लगती है अतः हमें उसी समय की आदत डालनी चाहिए जब प्रकृति हमारे शारीरिक यंत्रों को और अधिक सक्रिय कर सके। जब हमें गहरी भूख लगती है तो पेन्क्रियाज (अग्नाशय) और आमाशय अधिक सक्रिय हो जाते हैं। यदि उस समय प्रकृति के द्वारा पर्याप्त प्राण ऊर्जा मिल जाये तो हमारी स्वयं की ऊर्जा कम खर्च होती है।
प्रात:काल में सूर्योदय के एक घंटे पश्चात हमारा आमाशय सक्रिय होता