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________________ 216... जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता है तथा उसके दो घंटे पश्चात अग्नाशय अधिक सक्रिय होता है। इस समय किया गया प्रात:कालीन भोजन सर्वाधिक लाभकारी है तथा भोजन का पाचन सरलता से होता है। सूर्यास्त के दो घंटे पश्चात आमाशय तथा उसके दो घंटे पश्चात पेन्क्रियाज (अग्नाशय) की सक्रियता न्यून हो जाती है क्योंकि प्रकृति प्रदत्त प्राण ऊर्जा का प्रवाह उस समय प्राप्त नहीं होता, अतः भोजन के लिए यह समय अनुचित है। बिना भूख के भोजन करना एवं असमय में भोजन करना भी लाभकारी नहीं है। हमारे भोजन के पाचन में बाह्य प्रकृति प्रमुख स्थान रखती है इसीलिए सूर्य की उपस्थिति में किया गया भोजन सर्वाधिक शक्तिशाली होता है। किसी कवि ने कहा है पाँच बजे उठना और नौ बजे भोजन करना । पाँच बजे भोजन करना और नौ बजे सो जाना ।। हमारा उठना-बैठना, खाना-पीना इन सबका हमारे स्वास्थ्य पर विशेष प्रभाव पड़ता है। वैज्ञानिक, शारीरिक एवं आध्यात्मिक सभी दृष्टियों से रात्रिभोजन हमारे लिए किसी भी प्रकार से उचित नहीं है । यहाँ यह कहना अधिक महत्त्वपूर्ण है कि रात्रिभोजन केवल धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, अपितु स्वास्थ्य और विज्ञान की दृष्टि से भी त्याज्य है। प्रकृति भी हमें यही संदेश देती है। सूर्य का प्रकाश हमारे आरोग्य को नवजीवन प्रदान करता है। आयुर्वेद शास्त्र नाभि की तुलना कमल से करता है और जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से कमल विकसित होता है और सूर्यास्त होते-होते निष्क्रिय हो जाता है, वैसे ही हमारा नाभिकमल सूर्योदय के साथ विकसित होता है, उसकी क्रियाशक्ति गतिशील होती है किन्तु सूर्य की रोशनी के अभाव में वह मुरझा जाता है और पाचन तंत्र भी कमजोर पड़ जाता है। इस तरह स्वास्थ्य और शारीरिक दृष्टि से रात्रिभोजन त्याज्य है। सभी धर्म रात्रिभोजन को महापाप मानते हैं। आयुर्वेदशास्त्र के अनुसार रात्रिभोजन करने से स्वास्थ्य हानि, स्वभाव में उग्रता, कषायों का वर्धन, रोगों को आमंत्रण आदि कई अनिश्चित कार्य होते हैं। टी. हार्टली हेनेसी ने अपनी पुस्तक Healing by Water में सूर्यास्त के पूर्व भोजन का समर्थन किया है। डॉक्टरों के अनुसार वर्तमान की 90% बीमारियों का कारण बिगड़ती आहार पद्धति है। यहाँ इस सम्बन्ध में विभिन्न दृष्टियों से विचार करेंगे
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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