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________________ 214... जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता साधु-साध्वी ऋजु प्राज्ञ होने से रात्रिभोजन का सरलता से त्याग कर देते हैं। स्वरूपतः प्रथम अहिंसाव्रत में ही रात्रिभोजन विरमणव्रत का अन्तर्भाव हो जाता है अत: इसे पृथक् स्थान देने की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई। किन्तु प्रथम और चरम तीर्थङ्कर के साधु-साध्वी ऋजु जड़ और वक्र - जड़ होते हैं। इस दृष्टि से आदि और अन्तिम तीर्थङ्कर के शासनकाल में इसे पृथक् स्थान दिया गया, ताकि महाव्रतों की भाँति ही रात्रिभोजन विरमण का भी सम्यक् पालन किया जा सके। विशेषावश्यकभाष्य में उल्लेखित है कि रात्रि को भोजन न करने से अहिंसा महाव्रत का संरक्षण होता है। अतः यह समिति की भाँति उत्तरगुण है, परन्तु श्रमण के लिए अहिंसा महाव्रत की तरह पालनीय होने से मूलगुण की कोटि में रखने योग्य है। इसी आधार पर आचार्य जिनभद्र ने मूलगुण की संख्या पांच और छः दोनों स्वीकारी है। 129 आगमेतरकालीन ग्रन्थों में इस व्रत की अनिवार्यता को सुस्पष्ट रूप से स्वीकारा गया है और इसके मूल में पंचमहाव्रतों की रक्षा का प्रयोजन निर्दिष्ट किया है। जैसाकि आचार्य वट्टकेर ने रात्रिभोजनविरमण को पंचमहाव्रतों की रक्षा के लिए आवश्यक माना है। 130 भगवती आराधना में भी इस व्रत का पालन करना श्रमण के लिए जरूरी कहा गया है।131 दिगम्बराचार्य देवसेन, चामुण्डराय, वीरनन्दी और पं. आशाधर आदि ने रात्रिभोजन-विरमण को छठा अणुव्रत माना है । 132 कुछ आचार्यों ने इसे अणुव्रत की कोटि में न मानकर अहिंसाव्रत की भावना के अन्तर्गत गिना है। आचार्य उमास्वाति आदि तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकारों ने रात्रिभोजन - विरमण को छठा व्रत या अणुव्रत के रूप में भले ही स्वीकार न किया हो तथापि इस बात पर प्रामाणिकता के साथ बल दिया है कि रात्रिभोजन श्रमण के लिए सर्वथा त्याज्य है। उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि पाँच महाव्रत मूलगुण हैं और रात्रिभोजन विरमणव्रत उत्तरगुण हैं। फिर भी यह मूलगुणों की रक्षा में हेतुभूत है, इसलिए इसका मूलगुणों के साथ सम्बन्ध स्थापित किया गया है। दूसरा तथ्य यह है कि मूलगुण उत्तरगुणों के आधारभूत होते हैं किन्तु उत्तरगुण के बिना मूलगुण परिपूर्ण भी नहीं होते, अतः मूलगुण के ग्रहण से अर्थतः उसका भी ग्रहण हो जाता है। विशेषावश्यकभाष्य वृत्ति के अनुसार रात्रिभोजन विरमणव्रत उभय धर्मात्मक है जैसे साधु के लिए वह मूलगुण और
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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