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उपस्थापना (पंचमहाव्रत आरोपण) विधि का रहस्यमयी अन्वेषण... 195
ब्रह्मचर्य के सामान्य एवं विशिष्ट अर्थ
'ब्रह्म' शब्द के मुख्य रूप से तीन अर्थ हैं - वीर्य, आत्मा और विद्या। 'चर्य' शब्द के भी तीन अर्थ हैं- रक्षण, रमण और अध्ययन । इस तरह ब्रह्मचर्य के तीन अर्थ होते हैं - वीर्य रक्षण, आत्म रमण और विद्याध्ययन। निश्चयतः आत्म रमण करना और व्यवहारतः वीर्य रक्षण करना ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य के उक्त अर्थों पर कुछ गहराई से चिन्तन करना अपेक्षित है।
वीर्यरक्षण भारतीय आयुर्वेद शास्त्र का अभिमत है कि हम जो आहार लेते हैं उससे सर्वप्रथम रस बनता है, रस से रक्त का निर्माण होता है, रक्त से मांस, मांस से मेद, मेद से अस्थि, अस्थि से मज्जा और मज्जा से वीर्य बनता है। 78 इस भौतिक शरीर में वीर्य का निर्माण सातवें मंजिल पर होता है । पुरुष में भौतिक शक्तियों का केन्द्र वीर्य है और महिला में रज है।
आयुर्वेद शास्त्र में मर्मज्ञ वाग्भट्ट ने लिखा है— शरीर में वीर्य का होना जीवन है। हमारे शरीर में रस से लेकर वीर्य तक जो सप्त धातुएँ हैं उनका तेज 'ओजस्' कहलाता है। ओजस् मुख्य रूप से हृदय में रहता है। साथ ही वह सम्पूर्ण शरीर में भी व्याप्त रहता है जैसे-जैसे ओजस् की अभिवृद्धि होती है वैसे-वैसे शरीर में शक्ति की मात्रा भी बढ़ती जाती है। ओजस् से ही प्रतिभा, मेधा, बुद्धि, सौन्दर्य और उत्साह की वृद्धि होती है। 79
आयुर्वेदिक ग्रन्थों के अवलोकन से यह भी परिज्ञात होता है कि एक धातु से द्वितीय धातु का निर्माण होने में पाँच दिन का समय लगता है। भोजन करने के पश्चात जो सारभागीय तत्त्व है वह शरीर में रह जाता है और खलभागीय तत्त्व है वह प्रस्वेद व मल-मूत्र के द्वारा बाहर निकल जाते हैं। इस तरह रस से वीर्य तक के निर्माण में इकतीस दिन लग जाते हैं। उनका यह भी मन्तव्य है कि चालीस सेर भोजन से एक सेर रक्त और उसमें दो तोला वीर्य बनता है जबकि एक बार के सहवास से प्राप्त शक्ति नष्ट हो जाती है । एतदर्थ ही कहा है - 'वीर्य धारण हि ब्रह्मचर्य' अर्थात वीर्य का धारण करना ही ब्रह्मचर्य है।
भारतीय चिन्तकों ने वीर्य को अद्भुत शक्तिवान माना है। शरीर शास्त्रियों ने आभ्यन्तर या बाह्य किसी भी कारण से वीर्य शक्ति के ह्रास को मानव शक्ति के लिए हानिकारक बताया है। शरीर शास्त्रियों का यह भी मानना है कि वीर्य जीवन की संजीवनी शक्ति है । वीर्य-शक्ति के नाश से ज्ञानतन्तुओं में तनाव