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196...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता आता है, शरीर में शिथिलता आती है और अनेक रोगों के उत्पत्ति की सम्भावनाएँ रहती हैं, इसलिए ब्रह्मचर्य द्वारा वीर्य का संरक्षण किया जाना चाहिए।
आत्मरमण - ब्रह्मचर्य का दूसरा अर्थ आत्म रमण है। ब्रह्मचारी साधक आत्मा के शुद्ध भाव में रमण करता है। यह परमात्म भाव की साधना है, अस्तु आत्मा अनन्त-काल से अपने शुद्धस्वरूप को विस्मृत कर चुका है और जो उसका निजी स्वभाव नहीं है उसे वह अपना स्वभाव मान बैठा है। अनन्तकाल से विकार और वासनाएँ आत्मा के साथ हैं पर वे आत्मा के स्वभाव नहीं हैं। यथा - पानी का स्वभाव शीतलता है, अग्नि के संस्पर्श से वह भले ही उष्ण हो जाये पर उष्णता उसका स्वभाव नहीं है। आग का स्वभाव उष्णता है, मिर्ची का स्वभाव तीखापन है, मिश्री का स्वभाव मधुरता है वैसे ही आत्मा का स्वभाव विकार रहितता है। विकार कर्मों का स्वभाव है। ब्रह्मचर्य का साधक विभाव से हटकर स्वभाव में रमण करता है अत: आत्म-स्वभाव में रमण करना ब्रह्मचर्य है।
विद्याध्ययन - ब्रह्मचर्य का तीसरा अर्थ 'विद्याध्ययन' है। अथर्ववेद में लिखा है कि ब्रह्मचर्य से तेज, धृति, साहस और विद्या की उपलब्धि होती है। वह शक्ति का स्रोत है। इससे मन में साहस, बल, निर्भयता, प्रसन्नता और शरीर में तेजस्विता बढ़ती है।80
जैन दर्शन में ब्रह्मचर्य के लिए मैथुनविरमण और शील पालन जैसे शब्दों का भी प्रयोग है। सूत्रकृतांग (1/6) की टीका के अनुसार सत्य, तप, भूतदया, इन्द्रियनिरोध ब्रह्मचर्य है।81 आचार्य उमास्वाति ने गुरुकुलवास को ब्रह्मचर्य कहा है। सायण ने 'ब्रह्मचारी' शब्द का अर्थ करते हुए लिखा है कि जो स्वभावत: वेदात्मक ब्रह्म का अध्ययन करता है वह ब्रह्मचारी है।82 वेद (विशिष्ट ज्ञान) ब्रह्म है। अध्ययन के लिए आचरणीय कर्म ब्रह्मचर्य है। ___मनोविज्ञान की दृष्टि से कामशक्ति का ऊर्वीकरण, कामशक्ति का रूपान्तरण एवं कामशक्ति का संशोधन करना ब्रह्मचर्य है। एक चिन्तक ने लिखा है - स्वयं के मन की विश्रृंखलित शक्तियों को समस्त ओर से हटाकर किसी एक पवित्र बिन्दु पर केन्द्रित करना ब्रह्मचर्य है।