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________________ 194...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता 4. साधर्मिक अवग्रह अनुज्ञापनता - मालिक के द्वारा तृणादि ग्रहण करने की स्पष्ट अनुमति दिये जाने पर ही अनुज्ञापित अवग्रह से तृणादि ग्रहण करना अथवा अपने सहयोगी मुनियों के लिए भी परिमित परिमाण में ही स्थान या वस्तुओं की याचना करना। 5. साधारण भक्तपान अनुज्ञाप्य परिभुजनता- याचित आहारादि का आचार्य आदि गुरुजनों से अनुमति ग्रहण कर उपभोग करना। ___ तात्पर्य है कि अचौर्य व्रत की रक्षा के लिए श्रमण को पुन: पुन: आज्ञा ग्रहण करने का अभ्यास करना चाहिए तथा मालिक के द्वारा याचित वस्तु की अनुमति जितने समय के लिए दी जाये उतने समय तक ही उसका उपभोग करना चाहिए। उक्त भावनाओं के अनुचिन्तन से श्रमण का हृदय सरल और निश्छल बनता है। अचौर्य महाव्रत के अतिचार अचौर्य व्रत का सम्यक्तया परिपालन करते हुए भी सूक्ष्म और स्थूल दो प्रकार के अतिचार लगते हैं। उपयोग रहित तृण, पत्थर, राख आदि को ग्रहण कर लेना सूक्ष्म अतिचार है तथा साधु-साध्वी के उपकरण, अन्य धर्मी या गृहस्थादि की कोई वस्तु बिना आज्ञा के ग्रहण करना बादर अतिचार है। इसमें भी परिणामों की तरतमता की अपेक्षा सूक्ष्म और बादर भेद होते हैं।76 4. ब्रह्मचर्य महाव्रत का स्वरूप यह श्रमण का चतुर्थ महाव्रत है। मैथुन भाव का सर्वथा त्याग करना ब्रह्मचर्य महाव्रत कहलाता है। इस महाव्रत का साधक प्रतिज्ञा करता है किा 'हे भगवन्! मैं सर्व मैथुन का प्रत्याख्यान (परित्याग) करता हूँ। उसमें देवी-देवता के वैक्रिय शरीर सम्बन्धी, मनुष्य सम्बन्धी एवं घोड़ा-घोड़ी आदि तिर्यञ्च शरीर सम्बन्धी, इस तरह किसी भी प्रकार के मैथुन को मैं स्वयं सेवन नहीं करूँगा, अन्य द्वारा सेवन नहीं करवाऊंगा, अन्य के द्वारा मैथुन सेवन को मैं अच्छा नहीं मानूंगा। यह मेरी प्रतिज्ञा तीन करण और तीन योग पूर्वक यावज्जीवन के लिए है।' शेष पूर्ववत। इसका दूसरा नाम सर्वथा मैथुनविरमण व्रत है।
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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