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केशलोच विधि की आगमिक अवधारणा... 153 लघुयोगिभक्ति पढ़कर लोच प्रारम्भ करे। . लोच समाप्त हो जाने पर पुनः लघुसिद्धभक्ति के निमित्त कायोत्सर्ग करे और वह पाठ बोले।
अनगारधर्मामृत के अनुसार केशलुंचन के दिन उपवास करना चाहिए और केशलोंच सम्बन्धी क्रिया का प्रतिक्रमण भी करना चाहिए।25 तुलनात्मक अध्ययन
जैन धर्म में केशलोच-विधि से सम्बन्धित तिलकाचार्यसामाचारी, सुबोधासामाचारी, सामाचारीसंग्रह, विधिमार्गप्रपा आदि ग्रन्थों की परस्पर तुलना की जाए तो निम्न तथ्य ज्ञात होते हैं
खमासमणसूत्र की दृष्टि से - तिलकाचार्य सामाचारी,26 सामाचारीसंग्रह7 एवं विधिमार्गप्रपा28 में दो खमासमण लोच करने की अनुमति निमित्त एवं दो खमासमण उच्चासन पर बैठने की अनुज्ञा निमित्त, ऐसे चार खमासमण देने का उल्लेख है जबकि सुबोधासामाचारी29 में दो खमासमण देने का ही निर्देश है। इसमें 1. उच्चासण संदिसावेमि और 2. उच्चासण ठामि के आदेश का उल्लेख नहीं है।
चैत्यवन्दन की दृष्टि से - विधिमार्गप्रपा30 के अनुसार केशलोच की क्रिया पूर्ण होने के बाद लोच किये हुए साधु को स्थापनाचार्य के समक्ष ईर्यापथिक प्रतिक्रमण करना चाहिए, फिर शक्रस्तव बोलकर चैत्यवन्दन करना चाहिए। उसके बाद मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन कर गुरु को द्वादशावर्त्तवन्दन करना चाहिए। यह विधि तिलकाचार्यसामाचारी,31 एवं सामाचारीसंग्रह32 में भी समान रूप से कही गयी है, किन्तु इनमें चैत्यवन्दन के बाद 'अड्ढाइज्जेसु सूत्र' बोलने का भी निर्देश दिया गया है जबकि यह निर्देश विधिमार्गप्रपा आदि में नहीं है।
इस सम्बन्ध में सुबोधासामाचारी33 का पाठ कुछ भिन्न है। इसमें लोच करने के बाद ईर्यापथिक प्रतिक्रमण एवं चैत्यवन्दन करने का उल्लेख नहीं है। इस सामाचारी के अनुसार लोच किया हुआ साधु गुरु के समीप आकर उन्हें द्वादशावर्त्तवन्दन करें। ____ तिलकाचार्य सामाचारी एवं सामाचारीसंग्रह में चैत्यवन्दन का उल्लेख भी है, किन्तु चैत्यवन्दन के रूप में कौनसा सूत्र बोला जाना चाहिए, इसका निर्देश नहीं है जबकि विधिमार्गप्रपा में चैत्यवन्दन के रूप में शक्रस्तव बोलने का निर्देश है।