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154... जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता
लोचकार के प्रति निवेदन करने की दृष्टि से - जैन संस्कृति विनय प्रधान है। यहाँ प्रत्येक क्रिया करने से पूर्व गुरु की अनुमति प्राप्त करना, गुरु से निवेदन करना, ज्येष्ठ साधुओं का सम्मान करना आदि अपरिहार्य होते हैं। अत: इस सामाचारी के परिपालन एवं विनयधर्म की अक्षुण्णता बनाये रखने हेतु लोच कराने वाले साधु को, लोच करने वाले साधु के प्रति लोच करने का निवेदन करना चाहिए। इस सन्दर्भ में किञ्चित पाठ भिन्नता भी मिलती है ।
तिलकाचार्यसामाचारी34 एवं सामाचारीसंग्रह 35 में लोचकार के प्रति निवेदन करने के दो भिन्न-भिन्न आलापक दिये गये हैं। यदि लोच करने वाला साधु ज्येष्ठ हो तो ‘पसायकरी लोच करडं' यह बोलना चाहिए और लोच करने वाला साधु कनिष्ठ हो तो ‘इच्छकार लोच करउं' ऐसा बोलना चाहिए। इस प्रकार ज्येष्ठ एवं कनिष्ठ मुनि के प्रति निवेदन करने सम्बन्धी भिन्न-भिन्न पाठ हैं जबकि विधिमार्गप्रपा 36 में लोचकार ज्येष्ठ हो या कनिष्ठ निवेदन करने से सम्बन्धित एक ही आलापकपाठ है। सुबोधासामाचारी 37 में इस प्रकार का कोई निर्देश ही नहीं है।
इस वर्णन से निश्चित होता है कि एक ही परम्परा से सम्बन्धित उक्त ग्रन्थों में जो भी साम्य और वैषम्य है वह सामाचारी या गच्छप्रतिबद्धता की अपेक्षा से ही है मूलत: भेद नहीं है।
उपसंहार
मुनि जीवन पवित्रता का प्रतीक माना जाता है। उसके इस मानदण्ड को बनाये रखने के लिए उनसे कुछ विशेष साधना की अपेक्षा की जाती है। एतदर्थ केशलुंचन करना या करवाना अत्यावश्यक समझा गया है। दिगम्बर - परम्परा में मुनि के अट्ठाइस मूलगुणों में एक मूलगुण केशलुंचन है। इसकी परिगणना मुनि की कठिनतम चर्याओं में की गयी है ।
जैन शास्त्र इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि इस अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थङ्कर प्रभु ऋषभदेव ने स्वयमेव चार मुष्टि लोच किया था और भगवान महावीर ने स्वयं पंचमुष्टि केशलोच किया था। ऐसा आगमिक उल्लेख है कि आगामी उत्सर्पिणी में होने वाले प्रथम तीर्थङ्कर पद्मनाभ प्रभु स्वयं पंचमुष्टि केशलुंचन करेंगे। इस तरह भूत, वर्तमान और भविष्य में सर्वविरतिधर सभी आत्माएँ जैसे तीर्थङ्कर, सामान्य केवली, गणधर आदि स्वशक्ति के अनुसार