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मण्डली तप विधि की तात्त्विक विमर्शना... 127 करने का अधिकार प्राप्त कर लेता है। इससे पूर्व नवदीक्षित (शैक्ष) प्रतिक्रमण आदि क्रियाएँ एकाकी करता है अथवा मण्डली से पृथक् करता है।
मण्डली तप की आवश्यकता कब से और क्यों ?
मण्डली प्रवेश - मुनि धर्म की विशिष्ट योग्यता प्राप्त कर साधु मण्डली में प्रवेश करना, साधु समुदाय में सम्मिलित होना मण्डली प्रवेश कहलाता है।
मण्डली तप - प्रतिक्रमण आदि सात प्रकार की आवश्यक क्रियाओं को सामूहिक रूप से सम्पन्न करने की अनुमति के निमित्त किया जाने वाला तप मण्डलीतप कहलाता है। __तीर्थंकरों के शासनकाल में दीक्षा रूप में सामान्यत: सामायिक चारित्र देने की ही परम्परा थी। भगवान के समीप जो भी मुमुक्षु आते उन्हें उसी समय चारित्र धर्म स्वीकार करवा दिया जाता था। परमात्मा कहते थे- 'जहा सुयं देवाणुप्पिया मा पडिबद्धं करेह' हे देवानुप्रिय! तुम्हें जैसा सुखकर लगे, उसे शीघ्र करो, अच्छे कार्य में विलम्ब नहीं करना चाहिए। ऐसे वचनों को सुनकर साधक का वैराग्य पक्ष और अधिक पुष्ट होता था। लेकिन काल क्रम से परिस्थितियों में बदलाव आया, तब पूर्वाचार्यों ने ऐसा नियम बनाया कि कदाच नूतन शिष्य स्वयं को संयम पालन में असमर्थ महसूस कर पुनः गृहवास को अपना लें तो भी उसके एक व्रत का ही खण्डन हो, अन्यथा पाँच महाव्रत खण्डित होंगे। छोटी दीक्षा धारण करने के बाद पुन: गृहस्थ जीवन स्वीकार किया जाए तो केवल सामायिक चारित्र के खण्डन का ही दोष लगता है। ___ छोटी दीक्षा का उत्कृष्ट काल छह महीना माना गया है। इसके पीछे मूल हार्द यह है कि इस अवधि में नवदीक्षित संयम धर्म के सभी नियमों का ज्ञाता
और अभ्यासी होकर स्वयं को उस योग्य तैयार कर लें, ताकि महाव्रतों का निरतिचार पालन किया जा सके।
मण्डली तप, महाव्रतों को अंगीकार कर सकें उसके लिए प्रमाणपत्र के समान है। यह तप करने के पश्चात गुरु की दृष्टि में वह सर्वविरति चारित्र के योग्य हो जाता है और उसे तदरूप में स्वीकार भी कर लिया जाता है। __खरतरगच्छाचार्य पू. महोदयसागरजी म.सा. के शिष्य रत्न पूज्य कल्परत्नसागरजी म.सा. के अनुसार देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण तक मण्डली तप का प्रचलन नहीं था। आहार आदि की प्राप्ति हेतु पृथक्-पृथक् गमन करने का ही