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________________ 128... जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता उल्लेख मिलता है। देश कालगत बदलती स्थितियों के अनुसार जब साधुसाध्वी अधिक संख्या में एक साथ रहने लगे तब व्यवस्था की दृष्टि से इस विधि का संयोजन हुआ। किसी में परस्पर विवाद न हो इसलिए तपोनुष्ठान पूर्वक सामूहिक क्रियाओं की अनुमति दी गयी। तीर्थङ्करों के शासन में भी स्थविरकल्पी साधु-साध्वी एक साथ रहते थे किन्तु उस समय देश-कालगत स्थितियों का ऐसा प्रभाव था कि उन मुनियों की मनःस्थिति एकाकी साधना में सुगमतया जुड़ जाती थी, अतः मण्डली तप की आवश्यकता नहीं रही, परन्तु कालान्तर में सामूहिक क्रियाओं को महत्त्व देना आवश्यक होने से समानाधिकार हेतु मण्डली योग का प्रस्थापन हुआ । जब हम यह विचार करते हैं कि मण्डली तप की आवश्यकता किन दृष्टियों से है? तब पूर्व वर्णन से इतना स्पष्ट हो जाता है कि यह तप श्रमण या श्रमणी समुदाय के साथ आवश्यकादि क्रियाएँ करने की अनुमति प्राप्त करने हेतु किया जाता है। इसके अतिरिक्त जब नवदीक्षित मुनि आवश्यकसूत्र के माध्यम से षडावश्यक का ज्ञान और दशवैकालिकसूत्र के द्वारा पृथ्वीकायादि जीवों का परिज्ञान कर लेता है, तब उसकी योग्यता का परीक्षण करने हेतु पहले तप करवाया जाता है। उसमें सफलता पाने के बाद ही उसे श्रमण संघ की सदस्यता प्रदान की जाती है, अत: मण्डली तप का मुख्य उद्देश्य मुनि संघ की सदस्यता प्राप्त करना है । उस दिन से उसके वरिष्ठता क्रम का निर्धारण भी हो जाता है। यह तप सामुदायिक सामाचारियों के प्रति निष्ठा, श्रद्धा एवं बहुम के भाव जागृत करने के उद्देश्य से भी करवाया जाता है । जब शिष्य किसी अधिकार को विधि पूर्वक प्राप्त करता है, कठोर साधना पूर्वक प्राप्त करता है तब उसका यथार्थ मूल्यांकन वह स्वयं करने लगता है और उसे सहेज कर रखता है। विशिष्ट पुरुषार्थ के बल पर प्राप्त अधिकारों का दुरुपयोग नहीं होता, बल्कि वह सभी के लिए विशेष मूल्य रखता है अतः मण्डली तप की आवश्यकता नैष्ठिक गुण जागृत करने के उद्देश्य से भी सिद्ध होती है। इस तप का तीसरा हेतु मुनि जीवन की समग्र आचार मर्यादाओं एवं विविध सामाचारियों का सम्यक् ज्ञान अर्जित करना भी माना गया है। जब शैक्ष आचार नियमों का निपुण ज्ञाता बन जाता है तभी सामुदायिक क्रियाकलापों के प्रति अन्तरंग रुचि जगती है और उसे श्रमण संघ का अधिकार दिया जाता है । अत: यह उद्देश्य उसके समग्र भावी जीवन के लिए सुदृढ़ नींव बनता है।
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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