SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 80... जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता नव्य युग के....... मांस से विरत होने की प्रेरणा दें। तत्पश्चात मद्य-मांस के परित्याग से होने वाला ऐहिक और पारलौकिक फल बताएं। जो इस क्रम का अतिक्रमण करता है उसे तप और काल दोनों की अपेक्षा गुरु- चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। व्रती श्रावक के लिए यथारुचि धर्मोपदेश किया जा सकता है। यदि सामान्य श्रोता को व्युत्क्रम से उपदेश दिया जाता है तो हानि होती है। जैसे कोई व्यक्ति प्रव्रज्या ग्रहण के लिए तत्पर होकर मुनि के पास धर्मश्रवण के लिए आया हो और मुनि विपरीत क्रम से कथन करने लगे तो वह सोच सकता है कि जब व्यक्ति श्रावकधर्म का पालन करते हुए, कामभोग भोगते हुए भी यदि सुगति को प्राप्त कर सकता है, तो फिर कष्टसाध्य प्रव्रज्या से क्या प्रयोजन ? यदि सम्यग्दर्शन मात्र से सुगति प्राप्त हो सकती है, तो फिर व्रत बन्धन से लाभ ही क्या है ? इस प्रकार वैराग्यभाव शिथिल होने से वह प्रव्रज्या ग्रहण नहीं करता, बल्कि संसार सागर में डूब जाता है । अतः जिन शासन की प्राचीन परम्परा का निर्वहन करने के लिए अव्रती व्यक्ति के समक्ष सर्वप्रथम मुनि धर्म का ही उपदेश करना चाहिए। उत्क्रमपूर्वक उपदेश करने पर आगन्तुक व्यक्ति के विशिष्ट परिणामों से गिरने की पूर्णतः सम्भावनाएँ रहती हैं। इस वर्णन से निर्विवाद सिद्ध होता है कि जैन धर्म में मुनिधर्म का सर्वाधिक महत्त्व रहा है। विधिपूर्वक उपदेश देने से निम्न चार प्रकार के लाभ होते हैं- 1. तीर्थ की अविच्छिन्नता बनी रहती है। 2. तीर्थ को दीर्घजीवी बनाने से आत्महित होता है । 3. प्रव्रज्या प्रदान करने से पर- कल्याण होता है तथा उस व्यक्ति का संसार से समुद्धरण होता है। 4. मोक्ष - मार्ग की प्रभावना होती है । अतः मुनि धर्म प्रतिपादन को प्राथमिकता दी गयी है | 47 दीक्षार्थी की शुभाशुभ गति जानने के उपाय आचार्य हरिभद्रसूरिकृत पंचाशक प्रकरण के अनुसार कोई भी दीक्षार्थी, मुनि धर्म को अंगीकार करने हेतु विरचित समवसरण में प्रवेश करे, उस समय दीक्षा विधि प्रारम्भ करने से पूर्व उसकी शुभाशुभ गति का निर्णय अवश्य करना चाहिए। यह निर्णय एक निश्चित विधि एवं क्रमपूर्वक किया जाता है। इसमें सर्वप्रथम दीक्षार्थी के हाथों में सुगन्धित पुष्प देकर उसकी आँखों को श्वेत वस्त्र से आवृत्त करते हैं और उसको निर्भीक होकर जिनबिम्ब पर पुष्प फेंकने हेतु कहा जाता है। इस पुष्पपात के माध्यम से वह किस गति से आया है और वह किस
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy