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प्रव्रज्या विधि की शास्त्रीय विचारणा... 79 क्षमता का उत्तरोत्तर विकास होता है अत: उस उम्र में दीक्षा देने पर किसी प्रकार का विरोध नहीं किया जाना चाहिए।
प्राचीन आगमों में जो बाल-दीक्षा एवं वृद्ध-दीक्षा के उल्लेख प्राप्त होते हैं उनमें महत्त्वपूर्ण यह है कि तीर्थङ्कर पुरुषों और पूर्वधर आचार्यों ने अतिमुक्तक आदि की आन्तरिक योग्यता और भावी क्षमता को निहार कर दीक्षा दी थी। इस सम्बन्ध में शास्त्र-वचन भी मिलते हैं कि तीर्थङ्कर, चौदहपूर्वी और अतिशयधारी आचार्य बाल और वृद्ध को प्रव्रजित कर सकते हैं। अवधिज्ञानी आदि अपने प्रत्यक्षज्ञान से तथा परोक्षज्ञानी निमित्तज्ञान अथवा अतिशय श्रुतज्ञान से जान लेते हैं कि अमुक बाल या वृद्ध अमुक श्रुत के पारगामी होंगे, युगप्रधान होंगे या श्रमणसंघ के आधारभूत होंगे- यह जानकर वे बाल और वृद्ध को दीक्षित कर सकते हैं।46 इसीलिए तो भिखारी के जीव को भी दीक्षित करने के उदाहरण मिलते हैं। आजकल इस प्रकार की घटनाएँ दुर्लभ है।
स्पष्टार्थ है कि यह अधिकार सिवाय गीतार्थ आचार्य के किसी को प्राप्त नहीं है, क्योंकि गीतार्थ आचार्य के ज्ञानबल आदि की तुलना अन्य पदस्थ मुनियों से नहीं की जा सकती है। यहाँ तक कि वर्तमान में साक्षात तीर्थङ्कर के अभाव में आचार्य की आज्ञा को तीर्थङ्कर की आज्ञा के समान मानना चाहिए, ऐसा जैनाचार्यों ने निर्देश किया है। इस प्रकार गीतार्थ आचार्य के द्वारा बाल दीक्षा दिये जाने के विषय में कोई विरोध उपस्थित नहीं होता है।
सामान्यतया जैन-विचारधारा में दीक्षा लेने का अधिकार सभी को समान रूप से प्राप्त है। यह मार्ग बिना किसी वर्ण एवं जाति-भेद के सभी के लिए खुला है। महावीर के समय में निम्नतम जाति के लोगों को भी श्रमण-संस्था में प्रवेश दिया जाता था, यह बात उत्तराध्ययनसूत्र के हरिकेशीबल नामक अध्याय से स्पष्ट हो जाती है मुनिदीक्षा के उपदेश की प्राथमिकता क्यों?
जैन ग्रन्थों में वर्णन आता है कि यदि कोई व्यक्ति धर्मश्रवण के लिए आया है, तो उसके समक्ष निर्दिष्ट क्रम से धर्मचर्चा करनी चाहिए। उसे सबसे पहले यतिधर्म (मुनिदीक्षा) का उपदेश करें। यदि वह यतिधर्म स्वीकार करने में असमर्थ हो, तो अणुव्रतधर्म (श्रावक के बारह व्रतों) का उपदेश दें। यदि श्रावकधर्म ग्रहण करने में भी असमर्थ हो, तो सम्यग्दर्शन का उपदेश देकर मद्य