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________________ 78...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता नव्य युग के..... ____ बाल दीक्षा जैन धर्म का आधार है। चिहुं दिशा में जैनशासन का ध्वज लहराने वाले अधिकांश बालदीक्षित साधु-सन्त ही रहे हैं। बाल दीक्षा अतीत काल में प्रवर्तित थी, वर्तमान में प्रवर्तित है एवं अनागत काल में प्रवर्तित रहेगी। सार रूप में कहा जा सकता है कि प्रत्येक तीर्थङ्करों के शासन में बाल दीक्षा ली-दी जाती है। भगवान महावीर ने स्वयं ने षड्वर्षीय अतिमुक्त कुमार को दीक्षा दी थी तथा बालदीक्षा देने का विधान भी किया है। ___ आज से करीब 1300 वर्ष पूर्व आचार्य हरिभद्रसूरि ने पंचवस्तुक में बाल दीक्षा का सयुक्ति समर्थन किया है। आज से लगभग 350 वर्ष पूर्व हुए गुजरात गौरव उपाध्याय यशोविजयजी ने ‘मार्गपरिशुद्धि' में बालदीक्षा को अनेक प्रमाणों से सुसिद्ध किया है। आर्य संस्कृति का उद्घोष रहा है कि 'यदहरेव विरजेत तदहरेव प्रव्रजेत' जिस दिन वैराग्य उत्पन्न हो उसी दिन प्रव्रजित हो जाना चाहिए। बाल दीक्षा हिन्दुस्तान की भूमि को दी गयी एक अनोखी देन है। लघुवयी बालक जितना ज्ञानार्जन कर सकता है उतना परिपक्व व्यक्ति नहीं। आचार्य हेमचन्द्र, महोपाध्याय यशोविजयजी आदि इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। __ आगम-साहित्य एवं परवर्ती-साहित्य में कहीं पर भी बाल दीक्षा का निषेध नहीं है। बालकों की भाँति अनेक युवक-युवतियों ने भी दीक्षा ग्रहण की है। आगम साहित्य में उन युवक-युवतियों की उत्कृष्ट साधना का भी निरूपण है। इसी तरह वृद्ध व्यक्तियों ने भी प्रव्रज्या ग्रहण की है। श्रमण भगवान महावीर ने ऋषभदत्त ब्राह्मण को प्रव्रज्या प्रदान की थी।44 आचार्य जम्बूस्वामी द्वारा उनके पिता ऋषभदत्त को और आचार्य आर्यरक्षित द्वारा अपने पिता सोमदेव को प्रव्रज्या देने का उल्लेख मिलता है।45 इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन धर्म में वय की दृष्टि से किसी वय विशेष पर अधिक बल नहीं दिया गया है। चाहे बालक हो, चाहे युवक हो और चाहे वृद्ध हो जब वैराग्य की भावना प्रबल हो जाये, बलवती हो जाये, वह दीक्षा ग्रहण कर सकता है। क्षयोपशम एवं पूर्व संचित पुण्योदय के आधार पर वह योग्यता आठ वर्ष के पहले भी आ सकती है और पच्चास वर्ष के बाद भी आ सकती है। सामान्य तौर पर इतना मानना आवश्यक है कि आठ वर्ष के बाद बालक की बौद्धिक
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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