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________________ 32... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... स्थानांगसूत्र के आधार पर हुई मालूम होती है। श्रावक की दिनचर्या का प्राचीन स्वरूप जैन धर्म की शासन व्यवस्था का अर्धांग है श्रावक। मोक्षमार्ग की साधना का प्रथम सोपान श्रावकाचार से आरंभ होता है। महाव्रतों के कष्टसाध्य मार्ग पर आरूढ़ होने से पहले अणुव्रत रूप श्रावकधर्म का परिपालन करने की परिपाटी शाश्वत रूप से चली आ रही है। श्रावकधर्म की विशेषता यह है कि वह केवल मोक्षमार्ग की साधना नहीं है, प्रत्युत सांसारिक जीवन को भी व्यवस्थित और सन्मार्गगामी बनाने का साधन है। गृहस्थ को व्यापारिक, पारिवारिक और आध्यात्मिक सभी प्रकार की भूमिकाओं का निर्वहन करना होता है। प्रश्न उठता है-वह संसार और विराग दोनों प्रकार के कर्त्तव्यों का किस प्रकार निर्वाह करता है? इस विषय में जैनाचार्यों का महान योगदान रहा है। उन्होंने श्रावक की दैनिक चर्या का विधिवत संयोजन किया है ताकि वह सभी कृत्यों को यथोचित रूप से सुसंपन्न कर सकें। यदि ऐतिहासिक दृष्टि से पर्यवेक्षण करें, तो जहाँ तक जैन आगमों, प्रकीर्णकों, मूलसूत्रों का प्रश्न है वहाँ श्रावक की क्रमबद्ध चर्या का उल्लेख कहीं भी देखने को नहीं मिलता है। भगवतीसूत्र में जयन्ति श्राविका द्वारा पूछे गए प्रश्नों का वर्णन है। ज्ञाताधर्मकथासूत्र में मेघकुमार, धन्नासार्थवाह, तेतलीपुत्र, पण्डरीक-कण्डरीक आदि जैन धर्म का अनुसरण करने वाले श्रावकों का ऐतिहासिक जीवन चरित्र अंकित है, किन्तु उनका गृहस्थधर्म किस प्रकार परिपालित होता था, इसका कोई संकेत नहीं है। तदनन्तर उपासकदशासूत्र जो कि आचारांगसूत्र का पूरक है। आचारांगसूत्र में जिस प्रकार मुनिधर्म का प्रतिपादन किया गया है, उसी प्रकार इस श्रुतांग में श्रावकधर्म का भी परिपूर्ण परिचय प्राप्त होता है। इसमें श्रावकों के नियम एवं व्रत आदि का सविस्तृत वर्णन है। यहाँ व्रतों के अतिचार भी स्पष्ट बताए गए हैं। इसके सिवाय कथानकों के माध्यम से जैन-गृहस्थ के धार्मिक नियम भी समझाए गए हैं, परन्तु उनकी विधिवत् दैनिक-चर्या का सूचन नहीं है। अन्तकृतदशासूत्र में भव परम्परा का अंत करने वाले विशिष्ट चारित्रात्माओं का वर्णन है। गौतम आदि वृष्णिकुल के अठारह राजकमारों की तपोमय साधना का उत्कृष्ट वर्णन है, किन्तु उन महापुरूषों की दैनिक-चर्या क्या थी ? इस सम्बन्ध में कोई सामग्री प्रस्तुत नहीं है।
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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