________________
जैन गृहस्थ के प्रकार एवं उसकी धर्माराधना विधि ...33 इससे सूचित होता है कि आगम-युग में श्रावक जीवन की प्रणाली विधिवत् अवश्य होगी, किन्तु तयुगीन श्रावक जीवन के तप-संलेखना आदि अन्य पक्ष सबल होने के कारण अथवा लेखन कला विकसित न होने के कारण यह पक्ष अछूता रहा हुआ मालूम होता है।
जहाँ तक नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि एवं टीका विषयक ग्रन्थों का प्रश्न है, उनमें भी इस विषय को लेकर लगभग कोई चर्चा नहीं है। जहाँ तक
मध्यकालीन (5 वीं से 12 वीं शती के) ग्रन्थों का सवाल है वहाँ आचार्य हरिभद्रसूरिकृत पंचाशकप्रकरण, श्रावकधर्मविधिप्रकरण, श्रावकप्रज्ञप्ति आदि तथा हेमचन्द्राचार्यरचित योगशास्त्र आदि में इस विषयक प्रारम्भिक एवं सुव्यवस्थित स्वरूप उपलब्ध होता है। उत्तरकालीन आचारदिनकर आदि ग्रन्थों में भी यह विवरण प्राप्त होता है। संभवत: श्रावकचर्या का सुगठित स्वरूप भले ही परवर्ती ग्रन्थों में परिलक्षित होता हो, किन्तु आचार्य हरिभद्रसूरि के पूर्वकाल में इसका प्रायोगिक रूप मौजूद था, तभी आचार्य हरिभद्रसूरि इस प्रसंग में कुछ कह पाए।
पूर्वनिर्दिष्ट ग्रन्थों के अनुसार श्रावक की दिनचर्या एवं आचार विधि इस प्रकार है
जैनाचार्यों ने श्रावक के रहने योग्य स्थान का उल्लेख करते हुए कहा हैजहाँ साधुओं का आगमन हो, जिनमन्दिर हों और सहधर्मी बन्धु रहते हों, वहीं श्रावक को रहना चाहिए।61 आज यह पक्ष विचारणीय बनता जा रहा है। आधुनिक जीवन शैली में जीने वाले लोगों के लिए जिनालय या उपाश्रय का निकट होना उतना आवश्यक नहीं है, जितना कि मल्टीप्लेक्स, साइबरकेफे, बिगबाजार, होटल आदि का होना जरूरी है। यही वजह है कि आज की युवा पीढ़ी संस्कार विमुख होती जा रही है। - आचार्य हरिभद्रसूरि ने श्रावक की दैनिकचर्या पर प्रकाश डालते हुए निर्दिष्ट किया है कि • वह ब्रह्ममुहूर्त (सूर्योदय होने के 48 मिनिट पूर्व) में उठ जाए। • निद्रा से जागृत होते ही नमस्कारमन्त्र का स्मरण करें। . फिर मैं श्रावक हूँ, व्रतधारी हूँ, मेरा क्या धर्म है, मेरा कुल क्या है, मैंने किन व्रतों को अंगीकार किया है, इन सबका चिन्तन करें। . उसके बाद शारीरिक-नित्य क्रियाओं से निवृत्त होवें।
तदनन्तर आचारदिनकर62 के मतानुसार घर में या पौषधशाला में