________________
24 ... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक
प्रतिक्रमण करना 14. पूजा आदि महोत्सव करना 15. रात्रिजागरण करना 16. सर्व जीवों से क्षमाचायना करना 17. कल्पसूत्र का श्रवण करना। 18. प्राणी मात्र के प्रति अनुकम्पा का भाव रखना ।
वार्षिक कर्त्तव्य
....
उपदेशप्रासाद वृत्ति के अनुसार श्रावक के वार्षिक कर्त्तव्य निम्नोक्त हैं 51 1. संघपूजा - प्रतिवर्ष कम से कम एक बार संघपूजा करना । यहाँ संघ पूजा का तात्पर्य साधु-साध्वी को निर्दोष आहार एवं पुस्तक आदि का दान देना और श्रावक-श्राविका की यथाशक्ति भक्ति करने से है। वर्तमान में संघपूजा का अर्थ रूपए आदि की प्रभावना करने में रूढ़ हो गया है।
उपदेशप्रासाद टीका में संघ पूजा तीन प्रकार की कही गई है - उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य। सकल संघ की पधरामणी करना उत्कृष्ट संघपूजा है। सूत की नवकारवाली देना जघन्य संघपूजा है और शेष सर्वप्रकार की भक्ति करना मध्यम संघपूजा है।
यदि कोई श्रावक समर्थ न हो, तो साधु-साध्वी को मुखवस्त्रिका आदि और श्रावक-श्राविका को सुपारी आदि देकर भी संघ पूजा की जा सकती है, किन्तु जैन श्रावक को अनिवार्य रूप से यह कृत्य करना चाहिए । इतिहास प्रसिद्ध पूणिया श्रावक जैसी सामान्य भक्ति से भी बड़ा लाभ प्राप्त हो सकता है। एक जगह कहा गया है कि- संपत्ति में नियम, शक्ति होने पर सहनशीलता, यौवनावस्था में व्रत और दारिद्रयावस्था में अल्पदान महालाभ के कारण होते हैं।
,
2. साधर्मीभक्ति - 'समानः धर्मों येषां ते साधर्मिकाः ' - एक ही धर्म के अनुयायी परस्पर साधर्मिक कहलाते हैं। स्वधर्मी बन्धुओं के प्रति प्रेम, वात्सल्य, बहुमान और भक्ति करना साधर्मी वात्सल्य कहलाता है।
साधर्मी भक्ति का वास्तविक अर्थ यही है । आज साधर्मी भक्ति का अर्थ श्रीसंघ को भोजन करवाने के अर्थ में सीमित हो गया है। वस्तुतः भोजन करवाना तो साधर्मी भक्ति का एक प्रकार है । यथार्थ में तो आन्तरिक प्रेम, सद्भाव, वात्सल्यभाव आदि रखना साधर्मी भक्ति है।
दूसरी परिभाषा के अनुसार साधर्मिकों को निमंत्रित करके उन्हें विशिष्ट आसन पर बिठाकर वस्त्रादि का दान करना और यदि कोई सहधर्मी कर्मोदयवश विपत्तिग्रस्त स्थिति में हो, तो अपनी सम्पत्ति का व्यय कर उसका उद्धार करना साधर्मी भक्ति है। किसी ने लिखा है- 'न धर्मो धार्मिकैर्बिना' यदि जीवन में